Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 35
________________ ३४ श्रीवीतरागस्तोत्रम् दीपक के समान, समुद्र में द्वीप के समान, मरुधर - मारवाड़ में वृक्ष के समान तथा शीतकाल में अग्नि के समान हमें प्राप्त हुए हैं । (६) युगान्तरेषु भ्रान्तोऽस्मि, त्वद्दर्शनविनाकृतः । नमोऽस्तु कलये यत्र, त्वद् दर्शनमजायत ॥७॥ अर्थ - [ हे प्रभु !] अन्य युगों में मैं आपके दर्शन के बिना इस संसाररूपी अरण्य में भटक रहा था उससे इस कलियुग को ही नमस्कार हो, जिसमें आपके दर्शन हुए। (७) बहुदोषो दोषहीनात्, त्वतः कलिरशोभत । विषयुक्तो विषहरात्, फणीन्द्र इव रत्नतः ॥८॥ अर्थ - [ हे प्रभु !] जिस तरह विष को हरण करने वाले मणि के द्वारा विषयुक्त सर्प शोभित होता है । उसी तरह अठारह दोषरहित आपके द्वारा अनेक दोषों वाला कलियुग शोभित होता है । (८)

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