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श्रीवीतरागस्तोत्रम्
नवम प्रकाशः
यत्राल्पेनापि कालेन, त्वद्भक्तेः फलमाप्यते । कलिकालः स एकोऽस्तु, कृतं कृतयुगादिभिः ॥१॥
अर्थ – इस प्रकार एकान्तमत को निरस्त करके इस कलिकाल की उत्तमता दिखाते हुए वीतराग प्रभु का धर्मचक्रवर्तित्व बताते हैं।
इस कलिकाल में अल्पकाल द्वारा भी अपके भक्त आपकी भक्ति के फल को प्राप्त करते हैं । वह कलिकाल ही एक हो । कृतयुगादि युगों से चल रहा है। उसका कोई काम नहीं । कहा गया है कि -
कृतयुग में हजार वर्ष पर्यन्त की हुई भक्ति का जो फल प्राप्त होता है । वह फल त्रेतायुग में एक वर्ष द्वारा, द्वापरयुग में एक मास द्वारा और सतयुग में एक अहोरात्र द्वारा प्राप्त होता है । (१) सुषमातो दुःषमायां, कृपा फलवती तव । मेरुतो मरुभूमौ हि, श्लाध्या कल्पतरोः स्थितिः ॥२॥
अर्थ - हे प्रभु! सुषमा काल की अपेक्षा दुःषमा काल में आपकी कृपा (हो जाए तो वह) फलवती, उत्तम फल को देनेवाली है। जिस तरह मेरुपर्वत की अपेक्षा मरुधर (मारवाड़) की भूमि में कल्पवृक्ष की स्थिति प्रशंसा पात्र है। (२)