Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 34
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् ३३ श्राद्धः श्रोता सुधीर्वक्ता, युज्येयातां यदीश ! तत् । त्वच्छासनस्य साम्राज्यमेकच्छत्रं कलावपि ॥३॥ अर्थ - [हे प्रभु !] श्रद्धावान श्रोता और सुधी (आपके आगम रहस्य को जानने वाले वक्ता) इन दोनों का यदि समागम हो जाय तो ऐसे कलियुग में भी आपके शासन का एकछत्रवाला ही साम्राज्य है। (३) युगान्तरेऽपि चेन्नाथ !, भवन्त्युच्छृङ्खलाः खलाः । वृथैव तर्हि कुप्यामः, कलये वामकेलये ॥४॥ अर्थ - हे नाथ ! यदि कृतयुग आदि अन्य युग में भी मंखलिपुत्र जैसे उद्धत खलपुरुष होते हैं, तो फिर अयोग्य चरित्रवाले कलियुग के ऊपर हम वृथा ही कोप करते हैं। (४) कल्याणसिद्धयै साधीयान्, कलिरेव कषोपलः । विनाग्नि गन्धमहिमा, काकतुण्डस्य नैधते ॥५॥ अर्थ - कल्याण की सिद्धि के लिये कसौटी के पत्थर जैसे कलियुग ही विशेष रूप से उत्तम है। क्योंकि अग्नि के बिना अगर के गन्ध की महिमा वृद्धि नहीं पाता । (५) निशि दीपोऽम्बुधौ द्वीपं, मरौ शाखी हिमे शिखी। कलौ दुरापः प्राप्तोऽयं, त्वत्पादाब्जरजः कणः ॥६॥ अर्थ - [हे प्रभु !] कलियुग में दुःखपूर्वक प्राप्त की जा सके ऐसे ये आपके चरणकमल के रज के कण रात्रि में

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