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श्रीवीतरागस्तोत्रम्
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अर्थ - [हे प्रभो !] चन्द्र के किरणों जैसी उज्ज्वल चमरावली अर्थात् चामर की श्रेणी मानो आपके मुख कमल की सेवा में तत्पर होती हुई हंस की श्रेणी के सामने सुशोभित रही है । (४)
मृगेन्द्रासनमारूढे, त्वयि तन्वति देशनाम् । श्रोतुं मृगाः समायान्ति, मृगेन्द्रमिव सेवितुम् ॥५॥
अर्थ – [ हे प्रभो !] जब आप सिंहासन पर आरूढ होकर देशना देते हैं, तब आपकी देशना श्रवण करने के लिये हरिण भी आते हैं। वे जानते हैं कि मृगेन्द्र (अपने स्वामी) की सेवा करने के लिये आते हों ऐसा लगता है । (4)
भाषां चयैः परिवृतो, ज्योत्स्नाभिरिव चन्द्रमाः । चकोराणामिव दृशां ददासि परमां मुदम् ॥६॥
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अर्थ [हे प्रभो !] ज्योत्स्ना से परिपूर्ण चन्द्र जिसप्रकार चकोर पक्षी के नेत्रों को आनंद देता है । उसी प्रकार भामण्डल द्वारा परिपूर्ण आप सज्जनों के नेत्रों को आनन्द देते हैं । (६)
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दुन्दुभिर्विश्वविश्वेश, पुरो व्योम्नि प्रतिध्वनन् । जगत्याप्तेषु ते प्राज्यं, साम्राज्यमिव शंसति ॥७॥
अर्थ - हे सर्व विश्व के ( तीन जगत के ) स्वामी ! विहार में आपके आगे आकाश में रहकर शब्द करता हुआ