Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 27
________________ २६ श्रीवीतरागस्तोत्रम् से सर्जन करते हैं । ऐसा कहते हो तो उन्हें समस्त विश्वजगत को सुखी ही सर्जन करना चाहिये अर्थात् बनाना चाहिये । (३) दुःखदौर्गत्यदुर्योनि-जन्मादिक्लेशविह्वलम् । जनं तु सृजतस्तस्य, कृपालोः का कृपालुता ? ॥४॥ अर्थ - परन्तु वह तो इष्ट वियोगादिक दुःख, दरिद्रता, दुष्ट योनि और जन्म-मरणादिक क्लेश द्वारा व्याप्त ऐसे लोगों का सर्जन करते हैं । उससे उस कृपालु की कोई कृपालुता समझनी चाहिए ? (४) I कर्मापेक्षः स चेतर्हि, न स्वतन्त्रोऽस्मदादिवत् । कर्मजन्ये च वैचिन्ये, किमनेन शिखण्डिना ? ॥५॥ अर्थ - वे कदाचित् तुम्हें ऐसा कहेंगे कि वे देव तो जीवों के कर्म के अनुसार सब करते हैं । तब तो वे देव हमारे जैसे स्वतन्त्र नहीं हैं । यदि कर्म से उत्पन्न विचित्रता मानता हो, तो उस नपुंसक जैसे ईश्वर को मानने से क्या फल ? । (५) अथस्वभावतो वृत्ति - रवितर्कया महेशितुः । परिक्षकाणां तर्येष, परीक्षाक्षेपडिण्डिमः ॥६॥ अर्थ - यदि कदाचित् 'ईश्वर की विश्वसृष्टि सम्बन्धी स्वाभाविक प्रवृत्ति अन्य किसी के तर्क में आ सके, ऐसी नहीं' इस तरह कहेंगे तो परीक्षकों को निषेध करनेवाला यह

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