Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 28
________________ २७ २७ श्रीवीतरागस्तोत्रम् डिंडिम यानि ढोल बजाने जैसा है। (६) सर्वभावेषु कर्तृत्वं, ज्ञातृत्वं यदि सम्मतम् । मतं नः सन्ति सर्वज्ञा, मुक्ताः कायभृतोऽपि च ॥७॥ अर्थ – यदि 'समस्त पदार्थों का ज्ञान ही कर्तृत्व है' इस तरह तुम मानते हो तो यह हमारे द्वारा भी मान्य ही है, कारण कि हमारे जैन शासन में देह-शरीरधारी अरिहन्त सर्वज्ञ (जीवन मुक्त) और देह-शरीर रहित सिद्ध (विदेह मुक्त) ऐसे दो प्रकार के सर्वज्ञ हैं । (७) सृष्टिवादकुहेवाक-मुन्मुच्येत्यप्रमाणकम् । त्वच्छासने रमन्ते ते, येषां नाथ ! प्रसीदसि ॥८॥ अर्थ – हे नाथ ! जिनके ऊपर आप प्रसन्न हुए हैं, वे पुरुष उक्त कथनानुसार प्रमाणरहित सृष्टिवाद के कदाग्रह को छोड़कर आपके शासन में ही आनंद पाते हैं । (८)

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