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श्रीवीतरागस्तोत्रम्
सप्तम प्रकाशः
धर्माधर्मी विना नाङ्गं, विनाङ्गेन मुखं कुतः ? । मुखाद् विना न वक्तृत्वं, तच्छास्तारः परे कथम् ? ॥१॥
अर्थ - धर्म और अधर्म के बिना अर्थात् पुण्य-पाप के बिना शरीर नहीं हो सकता । शरीर बिना मुख कहाँ से होगा? और मुख के बिना वकतृत्व सम्भव नहीं है, उससे अन्य देव उपदेश दाता कैसे हो सकता है ? [कारण-जो नित्य मुक्त मानते हैं, और शरीरादि रहित मानते हैं, इसलिये वे उपदेश दाता नहीं हो सकते हैं ] । (१) अदेहस्य जगत्सर्गे, प्रवृत्तिरपि नोचिता । न च प्रयोजनं किंचित्, स्वातन्त्र्यान्न पराज्ञया ? ॥२॥
अर्थ – तथा देह-शरीर रहित देव की विश्व को उत्पन्न करने में प्रवृत्ति भी उचित नहीं । उसी प्रकार स्वतन्त्र होने के कारण वैसी प्रवृत्ति में कोई भी प्रयोजन नहीं और वे दूसरे की आज्ञा से प्रवृत्त भी नहीं होते हैं । (२) ।
क्रीडया चेत् प्रवर्तेत, रागवान् स्यात् कुमारवत् । कृपयाऽथ सृजेत्तर्हि, सुख्येव सकलं सृजेत् ॥३॥
अर्थ - यदि कदाचित् वे देव क्रीडा से ही विश्व की सृष्टि आदि में प्रवृत्त होते हैं । उस तरह कहें तो उसको बालक की तरह रागवान् कहना पड़ेगा, और यदि कृपा