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श्रीवीतरागस्तोत्रम्
कृतार्था जठरोपस्थ-दुःस्थितैरपि देवतैः । भवादृशान्निह्ववते, हा हा ? देवास्तिकाः परे ॥८॥
अर्थ - अरे ! अरे ! अन्य आस्तिक जठर और उपस्थ (क्षुधा और कामविकार) से दःखी, ऐसे देवों के द्वारा भी कृतार्थ होकर आपके जैसे वीतराग देवों को छुपाते हैं - निषेध करते हैं, वह अति खेद की बात है। (८)
खपुष्पप्रायमुत्प्रेक्ष्य, किञ्चिन्मानं प्रकल्प्य च । संमान्ति देहे गेहे वा, न गेहेनर्दिनः परेः ॥९॥
अर्थ - [हे प्रभो !] घर में ही शूरवीर ऐसे कितने लोग आकाश-पुष्प के जैसे मिथ्या उत्प्रेक्षा (मिथ्या तर्क) करके, तथा कुछ प्रमाण की कल्पना करके अपने देह में और घर में नहीं समाते हैं। [अर्थात्-मेरा ही धर्म श्रेष्ठ है ऐसा मानकर मस्त की तरह रहते हैं] । (९)
कामरागस्नेहरागा-वीषत्करनिवारणौ । दृष्टिरागस्तु पापीयान्, दुरुच्छेदः सतामपि ॥१०॥
अर्थ - [हे प्रभो !] कामराग और स्नेहराग इन दोनों का निवारण करना सुलभ है । किन्तु दृष्टिराग तो अत्यन्त पापी है । उसको सत्पुरुष भी दुःखपूर्वक छेद सकते हैं । (१०)
प्रसन्नमास्यं मध्यस्थे, दृशौ लोकम्पृणं वचः । इति प्रीतिपदे बाढं, मूढास्त्वय्यप्युदासते ॥११॥