Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 22
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् षष्ठ प्रकाशः लावण्यपुण्यवपुषि, त्वयि नेत्रामृताञ्जने । माध्यस्थ्यमपि द्वौः स्थ्याय, किं पुनर्देषविप्लवः ? ॥१॥ : २१ अर्थ - [ हे प्रभो !] आप लावण्य द्वारा पवित्र देहवाले होने से, प्राणियों के नेत्रों के लिए अमृत के अंजन समान होते हुए आपमें मध्यस्थपणा धारण करने में वह भी महा खेद के लिये है उसमें तो कहना ही क्या ? । (१) तवापि प्रतिपक्षोऽस्ति, सोऽपि कोपादिविप्लुतः । अनया किंवदन्त्यापि किं जीवन्ति विवेकिनः ? ॥२॥ > अर्थ - [ हे प्रभो !] आपके भी शत्रु हैं और वे भी क्रोधादि कषाय से व्याप्त हैं। ऐसी वार्त्ता के द्वारा भी क्या विवेकीजन जीवित रह सकते हैं ? नहीं जीवित रह सकते । (२) विपक्षस्ते विरक्तश्चेत्, स त्वमेवाथ रागवान् । न विपक्षो विपक्ष: किं, खद्योतो द्युतिमालिनः ? ॥३॥ अर्थ - यदि कदाचित् आपके शत्रु विरागी हों तो वह विरागी आप ही हैं, और जो वे आपके शत्रु रागी हों तो भी वे निश्चित ही शत्रु नहीं हो सकते हैं। क्या खद्योत सूर्य के शत्रु हो सकते हैं ? नहीं हो सकते हैं । (३) , स्पृह्यन्ति त्वद्योगाय यत्तेऽपि लवसत्तमाः । योगमुद्रादरिद्राणां परेषां तत् कथैव का ? ॥४॥ ,

Loading...

Page Navigation
1 ... 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70