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श्रीवीतरागस्तोत्रम्
अर्थ - [हे प्रभो !] आपका वदन - मुख प्रसन्न है और आपके दोनों नेत्र मध्यस्थ, (अर्थात् विकार रहित) हैं, तथा आपके वचन लोकों को प्रीतिकारक हैं । इस तरह आप सबको प्रीति करनेवाले होने पर भी मूढ लोग आपके ऊपर उदासीन रहते हैं | (११)
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तिष्ठेद्द्वायुर्द्रवेदद्रि-र्वलेज्जलमपि क्वचित् । तथापि ग्रस्तो रागाद्यैर्नाप्तो भवितुमर्हति ॥१२॥ अर्थ - [हे जिनेन्द्र प्रभो !] कभी वायु स्थिर हो जाय, पर्वत गीला हो जाय और पानी भी अग्नि के समान जाज्वल्यमान हो जाय, फिर भी जो (देव) रागद्वेषादि के द्वारा युक्त हों वे आप्त ( हितकारक ) होने के योग्य नहीं हैं [अर्थात्-वीतराग के बिना और कोई सच्चे देव को नहीं प्राप्त कर सकता है ] । (१२)