Book Title: Vitrag Stotram
Author(s): Hemchandracharya, 
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

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Page 18
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् मूर्ध्ना नमन्ति तरवस्त्वन्माहात्म्यचमत्कृताः । तत् कृतार्थ शिरस्तेषां, व्यर्थं मिथ्यादृशां पुनः ॥१३॥ १७ अर्थ - [हे प्रभो !] वृक्ष भी आपके माहात्म्य से चमत्कार पाकर आपको मस्तक द्वारा नमस्कार करते हैं । उससे उन्हींके मस्तक कृतार्थ हैं, और मिथ्यादृष्टि आपको नमन नहीं करते हैं उससे उन्हींके मस्तक व्यर्थ हैं । (१३) जघन्यतः कोटिसङ्ख्यास्त्वां सेवन्ते सुरासुराः । भाग्यसंभारलभ्येऽर्थे, न मन्दा अप्युदासते ॥ १४॥ अर्थ - [ हे प्रभो !] जघन्य से भी एक कोटि (क्रोड) सुर और असुर देव आपकी सेवा करते हैं । कारण कि पुण्य के समूह से प्राप्त हो सके ऐसे पदार्थ में मन्द प्राणी भी उदासीन नहीं रहते, तो पीछे देवता कैसे आलसी होंगे ? अर्थात् नहीं होंगे । (१४)

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