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श्रीवीतरागस्तोत्रम्
१५ केशरोमनखश्मश्रु, तवावस्थितमित्ययम् । बाह्योऽपि योगमहिमा, नाप्तस्तीर्थङ्करैः परैः ॥७॥
अर्थ - केश, रोम, नाखून और दाढी-मूंछ (आपके) दीक्षा ग्रहण के समय जिस तरह साफ किये हुए होते हैं । उसी भांति रहते हैं । अंशमात्र भी बढ़ते नहीं हैं ऐसा यह बाह्य (प्रकट) योग महिमा भी दूसरे हरिहरादिक देवों ने नहीं प्राप्त किया हैं तो फिर अन्तरङ्ग (सर्वाभि-मुख्यतादिक) योग की बात तो बहुत दूर है । (७)
शब्दरूपरसस्पर्श-गन्धाख्याः पञ्च गोचराः । भजन्ति प्रातिकूल्यं न, त्वदने तार्किका इव ॥८॥
अर्थ - [हे वीतराग प्रभो !] (नैयायिकादिक-) तर्क वादियों की तरह शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्शरूप पाँचों इन्द्रियों के विषय आपके आगे अनुकूलता को भजते हैं । प्रतिकूलता में (नहीं) रहते हैं । (८)
त्वत्पादावृतवः सर्वे, युगपत्पर्युपासते । आकालकृतकन्दर्प-साहय्यकभयादिव ॥९॥
अर्थ - अनादिकाल से आपके विरोधी कामदेव को सहायक होने के भय से ही होते हुवे समकाले सर्व ऋतु आकर आपके चरणकमल की सेवा करते हैं। (९)