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श्रीवीतरागस्तोत्रम् सुगन्ध्युदकवर्षेण, दिव्यपुष्पोत्करेण च । भावित्वत्पादसंस्पर्शा, पूजयन्ति भुवं सुराः ॥१०॥
अर्थ - जिस भूमि पर आपका चरण स्पर्श होने वाले हैं उस भूमि को देवता सुगन्धित जल की वृष्टि द्वारा तथा पंचवर्ण के पुष्पपुञ्ज द्वारा पूजते हैं । (१०)
जगत्प्रतीक्ष्य ! त्वां यान्ति, पक्षिणोऽपि प्रदक्षिणम् । का गतिर्महतां तेषां, त्वयि ये वामवृत्तयः ? ॥११॥
अर्थ - [हे त्रैलोक्यपूज्य ! प्रभो !] अज्ञानी ऐसे पक्षी भी आपकी प्रदक्षिणा करते हैं, तो फिर विवेकी और बुद्धिशाली होते हुए आपके प्रति जो प्रतिकूल व्यवहार कर रहे हैं । ऐसे मनुष्यों की क्या गति होगी ? । (११) पञ्चेन्द्रियाणां दौः शील्यं, क्व भवेद् भवदन्तिके ? । एकेन्द्रियोऽपि यन्मुञ्चत्यनिलः प्रतिकूलताम् ॥१२॥ ___ अर्थ - संज्ञीपञ्चेन्द्रिय मनुष्यादिक प्राणी की दुष्टता आपके पास कहाँ रहे ? कारण कि एकेन्द्रिय ऐसा वायु भी प्रतिकूलता को छोड़ देता है। (तो फिर अन्य का तो कहना ही क्या ?) अर्थात्-पवन (वायु) भी सुखकारक ही चलता है। (१२)