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श्रीवीतरागस्तोत्रम्
कामवर्षिणि लोकानां त्वयि विश्वैकवत्सले । अतिवृष्टिरवृष्टिर्वा, भवेद्यन्नोपतापकृत् ॥८॥
अर्थ - विश्व के उपकारी और लोगों के मनवांच्छित को देने वाले (हे प्रभो !) आप विद्यमान होने से लोगों को संताप करने वाली ऐसी अतिवृष्टि या अनावृष्टि होती ही नहीं । (८)
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स्वराष्ट्र-परराष्ट्रेभ्यो, यत् क्षुद्रोपद्रवा द्रुतम् । विद्रवन्ति त्वत् प्रभावात् सिंहनादादिव द्विपा: ॥ ९ ॥ अर्थ स्वचक्र (स्वराज्य) और परचक्र (परराज्य) से उत्पन्न हुआ क्षुद्र उपद्रव; सिंहनाद से जैसे हाथी भाग जाते हैं, वैसे आपके प्रभाव से तत्काल नष्ट हो जाते हैं । (९)
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यत् क्षीयते च दुर्भिक्षं, क्षितौ विहरति त्वयि । सर्वाद्भुतप्रभावाढये, जङ्गमे कल्पपादपे ॥१०॥
अर्थ- समस्त अद्भुत प्रभावशाली और जंगम कल्पवृक्ष के समान आपके पृथ्वी पर विचरने से दुर्भिक्षदुष्काल दूर हो जाते हैं । (१०)
यन्मूर्ध्नः पश्चिमे भागे, जितमार्त्तण्डमण्डलम् । माभूद्वपुर्दुरालोक-मितीवोत्पिण्डितं महः ॥११॥
अर्थ- सूर्य से भी अधिक प्रभाव वाला भामण्डल आपके देह (शरीर) को देखने में किसी को रुकावट (आड) न हो सके इसलिये देवताओं ने उसको आपके मस्तक के पीछे स्थापन किया है । (११)