Book Title: Vitrag Stotram Author(s): Hemchandracharya, Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 6
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् जैसा मैं हूँ। (अर्थात् यह मेरा आचरण महासाहसरूप होने से हँसने जैसा है) । (७) तथापि श्रद्धामुग्धोऽहं, नोपालभ्यः स्खलन्नपि । विश्रृंङ्खलापि वाग्वृत्तिः, श्रद्धानस्य शोभते ॥८॥ अर्थ – तो भी श्रद्धा से मुग्घ ऐसा मैं (प्रभु की स्तुति करने में) स्खलना हो जाए तो भी उपालम्भ के योग्य नहीं हूँ, कारण कि श्रद्धालु के सम्बन्ध रहित वचन रचना भी शोभा पाती है । (८) श्रीहेमचन्द्रप्रभवाद-वीतरागस्तवादितः । कुमारपालभूपालः, प्राप्नोतु फलमीप्सितम् ॥९॥ अर्थ - श्री हेमचन्द्रसूरिजी द्वारा कथित इस श्री वीतराग स्तोत्र से कुमारपाल भूपाल इच्छित (श्रद्धा विशुद्धि और कर्मक्षयरूप) फल को प्राप्त करें। (९)Page Navigation
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