Book Title: Vitrag Stotram Author(s): Hemchandracharya, Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar View full book textPage 4
________________ श्रीवीतरागस्तोत्रम् प्रथम प्रकाश: यः परात्मा परं ज्योतिः, परमः परमेष्ठिनाम् । आदित्यवर्णं तमसः परस्तादामनन्ति यम् ॥१॥ अर्थ - जो (सर्व संसारी जीवों से श्रेष्ठ स्वरूपवाले) परमात्मा हैं, केवलज्ञानमय हैं, पंचपरमेष्ठी में प्रधान मुख्य हैं, तथा अज्ञान के उस पार पहुँचे हैं और सूर्य के समान प्रकाश करने वाले हैं इस तरह पण्डितजन मानते हैं । (१) I सर्वे येनोदमूल्यन्त, समूला: क्लेशपादपाः । मूर्ध्ना यस्मै नमस्यन्ति, सुरासुरनरेश्वराः ॥२॥ अर्थ - जिसने (समस्त रागद्वेषादिक) क्लेशकारी वृक्षों को जड़मूल से उखाड़ दिये हैं । और जिनको सुरपति, असुरपति तथा नरपति अपने मस्तक द्वारा नमस्कार करते हैं । (२) प्रावर्तन्त यतो विद्याः, पुरुषार्थप्रसाधिकाः । यस्य ज्ञानं भवद्भावि, भूतभावावभासकृत् ॥३॥ | जिससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूपी पुरुषार्थ को सिद्ध करने वाली शुद्धविद्यादिक, चौदह विद्याएँ प्रवर्ती हैं । और जिनका ज्ञान अतीतकालीन (भूतकालीन), अनागतकालीन (भविष्यकालीन) तथा वर्तमानकालीन वस्तु - पदार्थ मात्र को प्रकाश करने वाला है। (३) यस्मिन्विज्ञानमानन्दं, ब्रह्म चैकात्मतां गतम् । स श्रद्धेयः स च ध्येयः, प्रपद्ये शरणं च तम् ॥४॥Page Navigation
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