Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
View full book text
________________
धर्म
जगत् के एक तथा अखण्ड तात्त्विक विधान में अपने अहंकार की टांग अड़ा कर मैं मेरा, तू-तेरा, अच्छा-बुरा, ऊँच-नीच, मित्र शत्रु आदि के द्वन्द्व खड़े करना विषमता है, जिसे सैद्धान्तिक भाषा में मोह कहा गया है। उसके फलस्वरूप स्वार्थं की उत्पत्ति और उसका उपर्युक्त सकल विषम व्यवहार क्षोभ शब्द का वाच्य है । इन दोनों का अभाव हो जाने पर जो शेष रह जाये, बस वही व्यक्ति का सहज आचरण है, और अग्नि से वियुक्त जल की शीतलता की भाँति सहज होने के कारण वही उसका धर्म है ।
Jain Education International
समता तथा शमता उसका लक्षण है । तात्त्विक दृष्टि से सबको समान देखना और माता की भाँति सबके साथ समानता का व्यवहार करना, प्रेमपूर्वक सबको गले लगाना, सबके दुःख-दर्द को अपना दुःख-दर्द समझना इत्यादि, जितने कुछ भी नैतिक आचार-विचारों का उल्लेख शास्त्रों में उपलब्ध होता है, वह सब तत्त्वदृष्टियुक्त होने के कारण मोह - विहीन समता में गर्मित है । दूसरी ओर स्वार्थ-जन्य सकल क्षोभ अथवा संघर्ष शान्त हो जाने के कारण वह शमता है । समता तथा शमतायुक्त यह सहज आचरण ही धर्म है और अहंकार तथा स्वायं के बन्ध से मुक्त होने के कारण यही मोक्ष है ।
g
3
e
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org