Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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त्मिक सावना का विकासक्रम- गुणस्थान सिद्धांत : एक तुलनात्मक अध्ययन
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(४) प्रभाकरी - इस भूमि में अवस्थित साधक को समाधि बल से अप्रमाण धर्मों का अवभास या साक्षात्कार होता है, एवं साधक बोधि पाक्षिक धर्मों की परिणामना लोक हित लिए संसार में करता है, अर्थात् वह बुद्ध का ज्ञान रूपी प्रकाश लोक में वितरित करता है । इसीलिए इस भूमि को प्रभाकरी कहा जाता है । इसे मी जैन विचारणा के अप्रमत्त संयत नामक सातवें गुणस्थान से ही तुलनीय माना जा सकता है ।
(५) अर्चिष्मती - इस भूमि में क्लेशावरण और ज्ञेयावरण का नाश होता है । प्रज्ञा अ (पट) का काम करती है, जिससे क्लेशावरण और ज्ञेयावरण का दाह होता है । आध्यात्मिक विकास की यह भूमिका जैनविचारणा के अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान से तुलनीय है, क्योंकि जिस प्रकार इस भूमि में साधक क्लेशावरण और ज्ञेयावरण का नाश करता है उसी प्रकार आठवें गुणस्थान में भी साधक ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का इस स्थिति घात करता है । इसमें साधक वीर्य पारमिता का अभ्यास करता है ।
(६) सुदुर्जया - इस भूमि में तत्वपरिपाक अर्थात् प्राणियों के धार्मिक भावों को परिपुष्ट करते हुए एवं स्वचित्त की रक्षा करते हुए, दुःख पर विजय प्राप्त की जाती है, यह कार्य अतिदुष्कर होने से इस भूमि को 'दुर्जया' कहते हैं । इस भूमि में प्रतीत्यसमुत्पाद के साक्षात्कार के कारण भवापपत्ति (उध्वं लोकों में उत्पत्ति) विषयक संक्लेशों से अनुरक्षण हो जाता है । बोधिसत्व इस भूमि में ध्यान पारमिता का अभ्यास करता है । इस भूमि की तुलना जैन विचारणा ८ से ११ वॅ गुणस्थान तक की अवस्था से की जा सकती है । जैन और बौद्ध दोनों विचारणाओं के अनुसार साधना की यह अवस्था अत्यन्त ही दुष्कर होती है ।
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(७) अभिमुखी - प्रज्ञापारमिता के आश्रय से बोधिसत्व ( साधक) संसार और निर्वाण दोनों के प्रति अभिमुख होता है । यथार्थं प्रज्ञा के उदय से उसके लिए संसार और निर्वाण में कोई अन्तर नहीं होता । अब संसार उसके लिए बंधक नहीं रहता । निर्वाण की दिशा में अभिमुख होने से यह भूमि अभिमुखी कही जाती है । इस भूमि में प्रज्ञापारमिता की साधना पूर्ण होती है । चौथी पांचवीं और छठी भूमियों में अधिप्रज्ञा शिक्षा होती है अर्थात् प्रज्ञा की साधना होती है, जो इस भूमि में पूर्णता को प्राप्त होती है । तुलना की दृष्टि से यह भूमि सूक्ष्म - सम्पराय नामक बारहवें गुणस्थान की पूर्वावस्था के समान है ।
(८) दूरंगमा- इस भूमि में बोधिसत्व साधक एकान्तिक मार्ग अर्थात् शाश्वतवाद उच्छेदवाद आदि से बहुत दूर हो जाता है, ऐसे विचार उसके मन में उठते नहीं हैं । जैन परिभाषा में यदि कहें तो यह आत्मा की पक्षातिक्रांत अवस्था है, संकल्पशून्यता है, साधना की पूर्णता है, जिसमें साधक को आत्मसाक्षात्कार होता है । बौद्ध विचारणा के अनुसार भी इस अवस्था में बोधिसत्व की साधना पूर्ण हो जाती है वह निर्वाणप्राप्ति के सर्वथा योग्य होता है । इस भूमि में बोधिसत्व का कार्य प्राणियों को निर्वाण मार्ग में लगाना होता है । इस अवस्था में वह सभी पारमिताओं का पालन करता है, एवं विशेष रूप से उपाय कौशल्य पारमिता का अभ्यास करता है | यह भूमि जैन विचारणा बारहवें गुणस्थान के अन्तिम चरण की साधना को अभिव्यक्त करती है क्योंकि जैनविचारणा के अनुसार भी इस अवस्था में आकर साधक निर्वाण प्राप्ति के सर्वथा योग्य होता है ।
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