Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में मुक्ति
115 ब्रह्मात्मैक्यानभूति को चरम स्थिति है। यही प्रवेश पदार्थ है अन्यथा प्रविष्ट वस्तु का पृथक् वर्णन होता। किन्तु उसका पृथक् वर्णन उपलब्ध नहीं है; अतः ऐक्य ही मुक्ति शब्द का अर्थ मानना अनुचित नहीं। मुच् धातु से क्विप् प्रत्यय कर यह निष्पन्न होता है । मृत्यु शब्द का अर्थ दुःख होता है और मृत्यु रूप बन्धन से मुक्ति ही विवक्षित है; जिसे अमृत शब्द से कहा गया है । कुछ लोगों ने जरामरण से मुक्ति अथवा जन्म-मृत्यु जरामरण से मक्ति अथवा सत्त्व, रज, तम इन तीनों गुणो से मुक्ति आदि अर्थ को विवक्षित माना है। वस्तुतः मोक्ष शब्द का शब्दार्थ किसी बन्धन से छुटकारा अर्थ हो कहता है क्योंकि जन्म होने पर मृत्यु अवश्यम्भावी है। अनेक उपनिषदों में विषयासक्ति रूप बन्धन से छुटकारा ही मुक्ति है। योगवासिष्ठ के अनुसार द्रष्टा और दृश्यभाव बन्धन है। अतः उससे छुटकारा ही मुक्ति है। योगवासिष्ठ में तो इतना तक कहा गया है कि विषय व्यसन युक्त तृष्णा बन्धन है और स्वर्ग से व्यसन से अनासक्ति मुक्ति है।'
जैन दर्शन के अनुसार उमास्वाति ने कहा है कि रागद्वेषादि कषायों से युक्त होकर जीव कर्मयोग्य पुद्गल का वहन करता है, जीवभावजनक मन को पुद्गल कहा जाता है। इन पुद्गलों का ग्रहण ही बन्धन है और पुद्गल का त्याग ही मुक्ति है अर्थात् सुखदुःखादि गुण धर्मों का निर्गुण आत्मा के धर्म के रूप में ज्ञान बन्धन है और यह बन्धन ही जीव के दुःख का कारण है।
जैन दर्शन के अनुसार बन्धन जीव के दुःख का कारण है और दुःख प्रतिकूल वेदिनीय है इसीलिये हेय है। ऐसी स्थिति में दुःख क्या है यह एक जटिल सा प्रश्न उपस्थित होता है । दुःख के विषय में आचार्यों का विभिन्न दृष्टिकोण उपलब्ध होता है कुछ लोगों ने आत्मशरीर सम्बन्ध को ही दुःख माना है । ( देहोऽहमिति संकल्पः तदु :खमिति चोच्यते )२ निरालम्बोपनिषद् के अनुसार समान विषय संकल्प ही दु:ख है । न्याय की दृष्टि में जन्म मृत्यु ही दुःख है
और यह अविद्या के कारण होता है । इसका समर्थन न्यायदर्शन के सूत्र एवं गीता के अनुसार होता है। दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानाम् उत्तरोतरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः। दुःख का स्वरूप लक्षण लिखते हुए न्यायदर्शन में कहा गया है कि पीड़ा ही दुःख है, दुःखनाश के लिये व्यक्ति सचेष्ट होता है । यह दुःखनाश ऐकान्तिक और आत्यन्तिक रूप से मनुष्य के लिये अभीष्ट है, दूसरे शब्दों में यही मुक्ति है । जो भी हो बन्धन ही दुःख है और उससे छुटकारा मुक्ति है। मुक्ति की अनेक व्याख्या आचार्यों ने प्रदर्शित की है और इसके दार्शनिक दृष्टिकोण से भिन्न २ पर्याय शब्द भी उपलब्ध हैं। यथा निर्वाण, कैवल्य, निःश्रेयस्, श्रेय ? अमृत, मोक्ष, अपवर्ग इत्यादि । निर्वाण-निर् उपसर्ग गतिगन्धनार्थक वा धातु से क्त प्रत्यय करके सिद्ध किया है । पाणिनि ने इसकी सिद्धि के लिये 'निर्वाणोऽवाते' यह सूत्र लिखा है अपवर्ग अर्थ में निर्वाण होता है अन्यत्र निर्वात होता है। बौद्धों ने निर्वाण शब्द का प्रयोग मुक्ति के लिये किया है।
१. योगवासिष्ठ १७५ २. तेजोबिन्दु उपनिषद् ५।९१ ३. क-न्यायदर्शन ११११२ ३. ख-जन्यमृत्युजरादुखैरविमुक्तोऽमृतमश्नुते । गीता० १४।२०
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