Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 264
________________ जैन कानून : प्राचीन और आधुनिक 131 यद्यपि जैनों की विवाह विधि में प्रादेशिक रीतिरिवाजों का प्रावान्य है फिर भी उसमें . प्राचीन काल से कुछ विशेषतायें है यथा वाग्दान ( सगाई ), वर का कन्या के स्थान में जाना, जैन मन्दिर में जाना और सभी रिश्तेदारों द्वारा पूजा करना, निश्चित शुभ तिथि में वर का कन्या के गले में माला डालना और पूजा तथा उत्सव करना । इन प्रमुख विधि के बीच अनेक प्रकार के रीतिरिवाज चल पड़े हैं। जैसे श्वेताम्बरों में : - ( १ ) मातृका स्थापन, (२) सप्तकुळकर स्थापन, (३) वर घोड़ानो शालिमंत्र, (४) हस्त मेळा, (५) अग्निस्थापन, (६) होम, (७) प्रथमाभिषेक, (८) गोत्रोच्चार, (९) मण्डप - वेद प्रतिष्ठा, (१०) तोरण-प्रतिष्ठा, (११) अग्नि- प्रदक्षिणा, (१२) कन्यादान, (१३) दासक्षेप, (१४) द्वितीयाभिषेक, (१५) करमोचन, (१६) आशीर्वाद । तथा दिगम्बरों में :(१) वाग्दान, (२) विनायक विधान, (३) कंकणबन्धन, (४) वृहसंस्कार, (५) तोरणविधि, (६) विवाहविधि, (७) परस्परमुखावलोकन, (८) वरमाला, ( ९ ) वर प्रतिज्ञा, (१०) कन्यादान, (११) देवशास्त्र गुरु पूजा, (१२) होमाहुति, (१३) ग्रन्थिबन्धन, (१४) पाणिग्रहण, (१५) सप्तपदी, (१६) पुण्याहवाचन, (१७) शान्तिमंत्र, (१८) आशीर्वाद, (१९) स्वगृहगमन, ( २० ) जिनगृहे धनार्पण | उपर्युक्त छोटे मोटे रीतिरिवाजों के होते हुए भी दिगम्बरों में विवाह विधि के प्रमुख पाँच अंग' माने गये हैं : -- वाग्दान प्रदान, वरण, पाणि- पीडन और सप्तपदी । वाग्दान सगाई को कहते हैं जो विवाह के कम से कम एक माह पूर्व दोनों पक्षों में होता है। प्रदान में वर की ओर से कन्या के लिए भेंट स्वरूप गहना आदि दिया जाता है । वरण कन्यादान है जिसे कन्या का पिता वर के लिये करता है । पाणिपीड़न या पाणिग्रहण विधि में विवाह के समय वर और कन्या के हाथ मिलाये जाते हैं । सप्तपदी या भांवरो अग्निकुण्ड की प्रदक्षिणा को कहते हैं जिसके बिना विवाह पूर्ण नहीं समझा जाता । सप्तपदी में यदि चौथी प्रदक्षिणा तक घर में कोई दोष निकल आया तो विवाह भंग समझा जाता है । कुछ आचार्यों के मतानुसार सप्तपदी होने पर भी पतिसंग होने के पूर्व यदि दोष विदित हो जाय तो विवाह भंग समझा जायगा । कन्यादान पिता को करना चाहिये । यदि पिता न हो तो बाबा, भाई, चाचा, पिता के गोत्र का कोई व्यक्ति, गुरु, नाना, मामा क्रमशः इस कार्य को करें। यदि कोई न हो तो कन्या स्वयं अपना विवाह कर सकती है । प्राचीन काल में एक पुरुष कई स्त्रियों से विवाह कर सकता था। उस समय बहुपत्नीत्व प्रतिष्ठा का सूचक था पर आजकल पुनर्विवाह वह तभी कर सकता है जब उसकी पूर्व पत्नी का स्वर्गवास हो जाय या पूर्व पत्नी का त्याग कर दे । आजकल बहुपत्नीत्व कानून की दृष्टि से और सरकारी सेवा की दृष्टि से अपराध है । जैन समाज में बहुपतित्व (Polyandry ) कभी प्रचलित नहीं रहा । १. वाग्दानं च प्रदानं च वरणं पाणिपीडनम् । सप्तपदीति पंत्रांग विवाहः परिकीर्तितः ॥ ( त्रैवणिकाचार, ११.४१ ) २. चतुर्थीमध्ये ज्ञायन्ते दोषा यदि वरस्य त्रेत् । दत्तामपि पुनर्दशात् पिताऽन्यस्में विदुर्बुधाः ॥ ( त्रैवणिकाचार, ११.१७४ ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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