Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 272
________________ वसुदेवहिण्डी : प्राकृत-बृहत्कथा 139 की उपलब्धि सम्भव है । 'वसुदेवहिण्डी' के रचयितासंघदासगणी ने कथा के शिल्प और विषयवस्तु को अपनी कल्पनाशक्ति से अतिशय विमोहक रूप प्रदान किया है और उदयन के पुत्र नरबाहनदत्त के अद्भुत पराक्रम को कृष्ण के पिता वसुदेव पर आरोपित करके प्राचीन कथा की परम्परा को नया आयाम दे दिया। वसुदेव के परिभ्रमण (हिण्डी-हिण्डन-परिभ्रमण या यात्रा) के वृत्तान्त से सम्बद्ध यह उच्चतर कथाकृति 'वसुदेवहिण्डी' न केवल प्राचीन जैनकथाओं में, अपितु विश्व के प्राचीन कथा-साहित्य में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। गुणाढ्य से सोमदेव तक की सुदीर्घ भारतीय कथा-परम्परा के विस्तृत भौगोलिक क्षितिज पर 'वसुदेव हिण्डी' का ज्योतिर्मय भाव-भास्वर उदय नितान्त विस्मयजनक है । जैन साहित्येतिहास के अनुसार वर्गीकृत 'प्रथमानुयोग' के साहित्य के अन्तर्गत संस्कृत-निबन्ध चरित्रग्रन्थों में उल्लेख्य हेमचन्द्र कृत त्रिष्टिशलाकापुरुषचरित' में नेमिनाथचरित के अन्तर्गत वसुदेव का चरित चित्रित हुआ है । उसमें भी 'जैन बृहत्कथा' की रूपरेखा परिलक्षित होती है । इसके अतिरिक्त, श्रीकृष्ण की प्राचीन कथाओं से सम्बद्ध जनकथाग्रन्थों में भी 'बृहत्कथा' का संक्षिप्त सार या नव्योदभावन प्राप्त होता है। किन्तु, संघदासगणीकृत 'वसुदेवहिण्डी' ने तो अपने विस्तार और विषय-वैविध्य के कारण जैनबृहत्कथा की परम्परा में क्रान्तिकारी या युगान्तकारी, परिवर्तन उपस्थित कर दिया। जैनागम-भाष्यों में अन्यतम 'आवश्यकचूणि' में इस ग्रन्थ के उल्लेख से इस कृति की कथा की विपुल व्यापकता का अनुमान सहज सम्भव है। इस कथाग्रन्थ की संस्कृत-तत्समप्रधान प्राचीन प्राकृत-भाषा से भी इसके रचनाकाल की प्राचीनता की सूचना मिलती है । कहना न होगा कि इस महान् कथाग्रन्थ की रुचिरता की ख्याति ई० प्रथम शती से छठी शती तक समान भाव से अनुध्वनित होती रही। इसलिए, गुप्तकाल को ही सस्कृत-प्राकृत का स्वर्णयुग माननेवाले भारतीय और भारतीयेतर विद्वान् इस ग्रन्थ के रचनाकाल की अन्तिम मर्यादा सन् ६०० ई० के आसपास निर्धारित करते हैं। यों, संरचना की दृष्टि से अनेक विस्मयकारी और कौतूहलवर्धक, बहुत हदतक रोचक और ज्ञानोन्मेषक भी, अन्तःकथाओं और अवान्तर कथाओं से संवलित किसी प्रबल पुरुषार्थी और प्रचण्ड पराक्रमी राजा या राजपुत्र की बड़ी कथा ही 'बृहत्कथा' के नाम से अभिहित हुई है । 'वसुदेवहिण्डी' की संरचना भी 'बृहत्कथा' की शैली में की गई है। भारतीयेतर देशों में 'सहस्ररजनीचरित्र' (अरेबियन नाइट्स टेल), अलिफलला की कहानी, हातिमताई का किस्सा आदि बृहत्कथाओं की परम्परा रहती आई है, आधुनिक हिन्दी में भी श्रीदेवकीनन्दन खत्री की ऐयारी या तिलिस्मवाले उपन्यास 'चन्द्रकान्ता' और 'चन्द्रकान्तासन्तति' 'बृहत्कथा' के ही हिन्दी-नव्योदभावना हैं। भले ही इनके चरितनायक उदयन या नरवाहनदत्त के बदले दूसरे ही क्यों न हों। 'बृहत्कथा' विराट् उपन्यास का ही नामान्तर है, जिसे गल्प की व्यापक श्रेणी में रखा जा सकता है। जैसा कहा गया, 'वसुदेव हिण्डी' में बृहत्कथा की ही परम्परा का नव्योद्भावना हुआ है। निश्चय ही, वसुदेवहिण्डी "गुणाढ्य-कृत बृहत्कथा" का पतिरुप नहीं है, किन्तु 'बृहत्कथा' की परम्परा में एक युग परिवर्तक जैन प्राकृत-नव्योद्भावन अवश्य है, जो 'बृहत्कथा' के प्राचीन रुपान्तर के साथ आधाराधेय भाव से जुड़ा हुआ है। इस कथाग्रन्थ में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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