Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

View full book text
Previous | Next

Page 285
________________ VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 उक्त 'पद्मचरित' अपभ्रंश भाषा में हैं तथा महाकवि स्वयम्भू के बाद दूसरी स्वतंत्र एवं विशाल रचना हैं । इसका कथानक आचार्य विमलसूरि एवं रविषेण की परम्परा के अन्तर्गत है । इसकी प्रशस्तियों में मध्यकालीन जैन समाज का अच्छा चित्रण है । यह ग्रन्थ भी अभी तक अप्रकाशित हैं । 152 महाकवि का एक तीसरा भक्त श्रावक था खेऊ साहू | महाकवि रइधू ने जब उन्हें आदेश दिया कि आपको 'पार्श्वनाथचरित' के लेखन काल के मध्य उनके परिवारों का भरणपोषण करना है, तो खेऊ साहू प्रसन्नता भर उठे । इसे कवि की कृपा मानकर वह बोले“हे अखण्डशील वाले महाकवि रइधू, आपके आदेश से मेरा मन पुलकित हो उठा है। आप ही बताइये कि यदि घर पर बैठे-बैठे ही कल्पवृक्ष के फल मिल जावें, तो उन्हें कौन नहीं खात चाहेगा? यदि अपने पुण्य प्रताप से कामधेनु घर बैठे ही प्राप्त हो जाय, तब फिर धूल उड़ाने वाले हाथी को कौन चाहेगा ? आज आपने मुझपर जो कृपा की है, उससे मेरा जन्म सफल हो गया है । आप धन्य हैं, जिन्हें कविजनों को दुर्लभ ऐसा उदार हृदय प्राप्त हुआ हैं।" जब 'पार्श्वचरित' की रचना समाप्त हुई और कवि ने उसे खेऊ साहूको समर्पित किया तब खेऊ साहू ने केवल हर्ष ही व्यक्त नहीं किया, अपितु उसे देश-विदेश से मंगवाए हुए कीमती हीरे, रत्न एवं वस्त्राभूषणों से आभूषित कर उसका सार्वजनिक सम्मान किया । इधू कृत इस 'पार्श्वचरित' की अनेक हस्तलिखित प्रतियां उपलब्ध हैं, किन्तु इसकी एक सर्वश्रेष्ठ एवं ऐतिहासिक प्रति मुझे एक श्वेताम्बर जैन भण्डार में उपलब्ध हुई, जिसकी विशेषता यह है कि वह सचित्र है तथा महाकवि रइधू के जीवन काल की ही प्रतिलिपि है । उसके चित्र मध्यकालीन चित्रकला के सर्वश्रेष्ठ नमूने हैं । इन चित्रों का प्रकाशन अनिर्वाय है अन्यथा कुछ समय के बाद वे निश्चय ही नष्ट हो जा सकते हैं । चन्द्रवाड पट्टन के पद्मावती-पुरवाल जाति के शिरोमणि नगर सेठ कुन्थुदास भी कम साहित्यरसिक न थे । रत्नजटित मुकुट एवं अलंकार उन्हें अत्यन्त प्रिय थे, किन्तु स्वर्ण निर्मित नहीं, ग्रन्थरत्न रूपी अलंकार | श्रावक कुन्थुदास के बार-बार विनय करने पर महाकवि रइधू ने उनके सिर पर समस्त दुखों के अपहरण करने वाले " त्रिषष्टिशलाकामहापुरुषपुराणचरित" रूपी मुकुट को बाध दिया । इसी प्रकार उनके बाएँ कान में सुवर्ण सिद्ध सम्यग्दर्शन रूपी रत्न से विवद्ध तथा रवि-मण्डल की प्रभा के समान दीप्त, विवद्ध तथा रवि- मण्डल की प्रभा के समान दीप्त विस्तृत "कौमुदी कथा" रूपी श्रेष्ठ कुण्डल पहिना दिया । इसी प्रकार दाएँ कान में सोलह भावना रूपी मणियों से जटित जीमंजर के गुणरूपी स्वर्ण से घटित अद्वितीय कुण्डल पहिना दिया । महाकवि रइधू के अद्यावधि उपलब्ध २५ हस्तलिखित ग्रन्थों में से उक्त तीन ग्रन्थ साइ कुन्थुदास के निमित्त से ही लिखे गए थे । ये तीनों ग्रन्थ अप्रकाशित हैं इनमें से ‘त्रिषष्टिशलाकामहापुरुषपुराण' चरित (अपरनाम महापुराण) को तो कुछ समय पूर्व अनुपलब्ध एवं विनष्ट घोषित कर देना पड़ा था, किन्तु संयोग से बाराबंकी के जैन समाज ने उसे सुरक्षित रखा था। इसकी जानकारी इन पंक्तियों के लेखक को स्वप्न में हुई, जो संयोग से सत्य सिद्ध हुआ और पूज्य पं० कैलाशचन्द्रजी (वाराणसी) के सद्प्रयत्नों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294