Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 283
________________ 150 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 पात्र भी। उनका व्यापार अंग, बंग, कलिंग, गौड़, केरल, कर्नाटक, चोल, द्रविण, पांचाल, सिन्ध, रवस, मालवा, लाट, भोट, टक्क, नेपाल, कोंकण, महाराष्ट्र, भादानक, हरयाणा, मगध, गुजरात, सौराष्ट्र आदि देशों में फैला हुआ था। हरियाणा निवासी जैनकवि विवध श्रीधर जब दिल्ली में आकर राजा अनंगपाल के मन्त्री अल्हण साहू से मिलता है तब वह सलाह देता है कि वह नगरसेठ नट्टल साहू से अवश्य मिले किन्तु अपरिचित होने के कारण वह कवि उनसे नहीं मिलना चाहता और अपने पिछले अनुभवों को सुनाता हुआ वह अल्हण साहू से कहता है :–"हे साहू, आपने मुझसे जो कुछ कहा है, वह ठीक है, किन्तु दुर्जनों की कमी कहीं भी नहीं है । वे कूट-कपट को ही विद्वत्ता मानते हैं। वे सज्जनों से ईर्ष्या एवं विद्वेष करते हैं तथा उनके सद्गुणों को असह्य मानकर उनके प्रति दुर्व्यवहार करते हैं। कभी मारते हैं, तो कभी टेढ़ी आँखें दिखाते हैं और कभी हाथ पैर अथवा सिर तोड़ देते हैं। मैं ठहरा सीधा-सादा सरल स्वभावी, अतः मैं तो अब किसी के पास नहीं जाना चाहता।" कवि का यह कथन सुनकर अल्हण को कवि की स्थिति पर बड़ा दुःख हुआ और वह कहता है कि- "हे कवि, क्या सचमुच ही तुम नट्टल को नहीं जानते ? अरे, वह धर्म-कार्यों में बड़ा ही धुरन्धर है, उन्नत कान्धौर वाला है। वह दुर्जनों को कुछ भी नहीं समझता, किन्तु सज्जनों को सिरमौर मानता है। जो जिन-भगवान का पूजा-विधान कराता है, विद्वद्गोष्ठियों का उत्तम आयोजन कराता रहता है और कवियों का सम्मान करता है, उस नट्टल के पास आप अवश्य जाइये।" ____साहू अल्हण के अनुरोध पर विवुध श्रीधर नट्टल साहू के पास पहुंचे। उसके भव्य व्यक्तित्व को देखते ही कवि बड़ा प्रभावित हुआ। नट्टल भी कवि को देखते ही आसन छोड़कर खड़ा हो गया और ताम्बूलादि से उसका स्वागत किया। उस समय का दृश्य इतना भव्य था कि दोनों के मन में एक साथ ही यह भावगा उदित हो रही थी कि"हमने पूर्वभव में ऐसा कोई सुकृत अवश्य किया था, जिसका फल हमें इस समय मिल रहा है।" एक क्षण के बाद कवि ने नट्टल साहू से कहा-"मैं अल्हण साहू के अनुरोध से आपके पास आया हूँ। उन्होंने आपका परिचय मुझे दे दिया है। आपने योगिनीपुर में आदिनाथ का एक विशाल जिन-मन्दिर बनवाया है तथा उस पर पंचरंगे झंडे को फहराया है। आपने जिस प्रकार उस भव्य मन्दिर की प्रतिष्ठा कराई है, उसी प्रकार आप एक 'पार्श्वनाथचरित' की रचना भी कराइये।" कवि का यह कथन सुनकर नट्टल साहू अत्यन्त प्रमुदित हुआ और बोला--- "हे कविवर, सुखकारी रसायन का एक कण भी क्या कृशकायवाले प्राणी के लिए बड़ा भारी अवलम्ब नहीं होता?" तब कवि ने उसके आश्रय में रहकर अपभ्रंशभाषा में महाकाव्यात्मक-शैली में 'पार्श्वनाथचरित" की रचना की। १५ वीं-१६ वीं सदी के महाकवि रइधू ने अपनी अनेक ग्रन्थ-प्रशस्तियों में अपने आश्रयदाता श्रावकों एवं श्राविकाओं का मनोहारी वर्णन किया है। ऐसे सज्जनों में से एक थे कमलसिंह संघवी, जो गोपाचल के तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह के महामन्त्री थे। अपने ऐश्वर्य में वे स्वयं किसी राजा-महाराजा से कम न थे। वे जैनधर्म के परमभक्त एवं नियमितरूप से स्वाध्याय प्रेमी थे । एक दिन के कवि रइधू से कहते हैं कि-"हे कविवर, १. इन पंक्तियों के लेखक ने इसका सम्पादन एवं अनुवाद कर समीक्षात्मक अध्ययन तैयार कर लिया है जो शीघ्र ही प्रकाशित होगा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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