Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 282
________________ प्राचीन जैन शिलालेखों एवं जैन ग्रन्थ प्रशस्तियों में उल्लिखित कुछ श्रावक-श्राविकायें 149 अर्थात् गिरि कन्दराओं में घास खाकर रह जाना अच्छा, किन्तु दुर्जनों की टेढ़ीभौं सहकर पक्वान्न खाना अच्छा नहीं । भला ऐसा अक्खड़ एवं अभिमानमेरु महाकवि किसके वश में होता ? और उसे अपने भवन में रखकर कौन आग से खेलता ? किन्तु धन्य हैं वे महाश्रावक महामात्य भरत, जो महाकवि को साहित्यिक महाविभूति मानकर अपने राजमहल में किसी प्रकार मना करके ले आए। प्रारम्भ में तो वे बड़े भयभीत थे कि कहीं कवि महोदय किसी कारणवश रूठकर भाग न जाय । किन्तु भरत की शालीनता, विनम्रता, उदारता एवं साहित्य रसिकता ने कवि को इतना अधिक प्रभावित किया कि वह वहीं रम गया और अपने ग्रन्थों का प्रणयन कर उनकी प्रशस्तियों में इस प्रकार लिखा : "पुष्पदन्त के साथ मित्रता हो जाने से भरत का राजमहल विद्या विनोद का स्थान बन गया । उस महल में पाठक लोग निरन्तर पढ़ते रहते हैं, गायक गाते रहते हैं तथा लेखकगण सुन्दर-सुन्दर काव्य लिखते रहते हैं ।'' 'महामात्य भरत समस्त कलाओं और विद्याओं में कुशल हैं । प्राकृत-कवियों की रचनाओं पर मुग्ध रहते हैं । उन्होंने सरस्वती सुरभि का दूध पिया था, लक्ष्मी उन्हें चाहती थी । सत्यप्रतिज्ञ और निर्मत्सर थे । युद्धों का बोझ ढोते ढोते उनके कन्धे घिस गए थे ।" 66**** सचमुच ही महाकवि को प्रश्रय देकर और प्रेम पूर्वक अनुरोध कर भरत ने वह कार्य किया, जिससे जैन साहित्य पर मौलिक ग्रन्थों का प्रणयन तो हुआ ही, साथ ही भरत की कीर्ति भी चिरस्थायी हो गई । के भरत की मृत्यु के बाद उसके पुत्र महामात्या नन्न ने भी उक्त कवि को अपने राजभवन में सम्मान दिया । उसकी चर्चा करते हुए कवि ने लिखा है- ' जिस नन्न ने बड़े भारी दुष्काल समय, जब कि सारा जनपद नीरस और वीरान हो गया था, दुस्सह- दुःख सर्वत्र व्याप्त हो रहा था, स्थान-स्थान पर मनुष्यों की खोपड़ियाँ एवं कंकाल बिखरे पड़े थे, सर्वत्र रंक ही रंक दिखलाई पड़ रहे थे, यथाशक्ति सभी की सहायता कर मुझे भी सरस -भोजन, सुन्दर वस्त्र एवं ताम्बूलादि से सदा सम्मानित किया, बह नन्न चिरायु हो।" इस महाकवि ने अपने को अभिमानमेरु एवं अभिमानचिह्न जैसी उपाधियों से भूषित कहा है। पुरातन प्रबन्ध संग्रह के एक उल्लेख के अनुसार वि० सं० १३१४ में गुजरात में भयानक अकाल पड़ा । सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची हुई थी । उस समय श्रावक - शिरोमणि जगडूशाह ने अपने पुरुषार्थ से अर्जित सम्पत्ति को सुरक्षित रखना घोर पाप समझा । अतः उन्होंने ८००० मूड (स्वर्णमुद्रा - विशेष) राजा वीसलदेव को १६००० मूड राव हम्मीर को, तथा २१००० मूड सुलतान को भेंट स्वरूप प्रदान कर दिए, जिससे अकाल पीड़ितों की सहायता की जा सके । साहू नट्टल (१२वीं सदी) दिल्ली के अत्यन्त समृद्ध व्यापारियों एवं जिनवाणी भक्तों में अग्रगण्य थे। साथ ही दिल्ली के तोमर वंशी राजा अनंगपाल के परम विश्वस्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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