Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 277
________________ १८०) 144 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 : साहित्य एवं राजनीति आदि विषयों को सैद्धान्तिक एवं प्रायोगिक शिक्षा प्रदान की जाती थी। । श्रवणवेलगुल के शिलालेख सं० १३७ में एक प्रश्न पूछा गया है कि- "जिन शासन का स्थिर रूप से उद्धार करने वाला प्रथम श्रावक कौन है ?" तब उसी प्रश्नकर्ता ने उत्तर देते हुए कहा है कि "जिन-शासन का स्थिर रूप से उद्धार करनेवाला सर्वप्रथम श्रावक राचमल्ल भूपति का श्रेष्ठ मन्त्री चामुण्डराय है।" इन श्रावक-शिरोमणि तथा चामुण्डरायपुराण के लेखक चामुण्डराय को कौन नहीं जानता ? जब वे युद्धभूमि में रहते, तो चामुण्डादेवी का साक्षात् वरदान उनकी तलवार की नोक पर उपस्थित रहता, और शान्ति के दिनों में पीतवस्त्रधारी बनकर जब वे अपनी रचाध्याय शाला में विराजते तब सरस्वती उनकी जिह्वा एवं लेखनी में स्वयं उपस्थित हो जाती। शिलालेख सं० २३४ (वि० सं के अनुसार चामुण्डराय ने पोदनपुर के समीप ५२५ धनुष ऊंची बाहुबलि की मूत्ति के दर्शन के लिए जब प्रस्थान करना चाहा, तब उनके गुरु ने उस स्थान को बहुत दूर एवं अगम्य बताकर उन्हें रोक दिया। इस पर चामुण्डराय ने उसी प्रकार की मूत्ति के निर्माण कराने का संकल्प किया और उसे पूर्ण करके ही छोड़ा। उक्त लेख में बताया गया है कि--"मूर्ति जब बहुत विशाल होती है तब उसमें सौन्दर्य प्रायः नहीं आ पाता । यदि विशाल मूत्ति में सौन्दर्य आ भी गया तो उसमें दैवी चमत्कार का अभाव हो सकता है। किन्तु इस गोम्मटेश्वर की मूर्ति में तीनों तत्त्वों के मिश्रण से उसकी छटा अपूर्व हो गई है।" बाहुबलि की यह मूत्ति ५७ फीट ऊँची है । बाहुबलि का यह स्थल श्रवणवेलगुल के नाम से प्रसिद्ध है । यह कलांतीर्थ वीरवर चामुण्डराय की ऐसी अमर ऐतिहासिक कृति है, जो "यावच्चन्द्र दिवाकरौ' उनकी कोत्ति का गुणानुवाद करती रहेगी। राष्ट्रकूट वंशी जैन सम्राट अमोघवर्ष के शासन की प्रशंसा विदेशी इतिहासकारों ने भी की है। ९ वीं सदी के अरबो इतिहासकार सुलेमान के अनुसार "उस समय संसार में केवल चार सम्राट ही प्रसिद्ध थे (१) भारत का अमोघवर्ष, (२) चीन का सम्राट, (३) बगदाद का खलीफा एवं (४) रूम (तुर्की) का सुलतान । किन्तु इन चार में भी सम्राट अमोघवर्ष प्रथम थे।" डॉ० भण्डारकर के मतानुसार--"राष्ट्रकूटन रेशों में अमोघवर्ष जैनधर्म का सर्व महान् संरक्षक था।" पट्टावलियों के अनुसार वीरसेन स्वामी के पट्टशिष्य और वाटनगर केन्द्र के तत्कालीन अधिष्ठाता आचार्य जिनसेन स्वामी, अमोघवर्ष के धर्म एवं राजगुरु थे। जिनसेन ने अपने गुरु वीरसेन स्वामी के स्वर्गारोहण के बाद उनके अधूरे कार्यों को वि० सं० ८१४ के आसपास अमोघवर्ष के प्रश्रय में रहकर ही पूर्ण किए थे, जिनमें • ६०,००० श्लोक प्रमाण 'जयधवल' ग्रन्थ प्रमुख है । अमोघवर्ष की ही प्रेरणा से पार्वाभ्युदय। महाकाव्य, महापुराण एवं उत्तर पुराण की भी रचनाएँ की गई। अमोघवर्ष को जैन-समाज का वीर-विक्रमादित्य माना जा सकता है क्योंकि उसका 'दरबार अनेक साहित्यिक आचार्यों से भरा हुआ रहता था। आचार्य जिनसेन, गुणभद्र आयुर्वेद के महान् आचार्य उग्रादित्य, महान् गणितज्ञ महावीराचार्य, महान् वैयाकरण शाकटायन पाल्यकीति आदि इनमें प्रमुख थे। इतना ही नहीं, इन कवियों के संसर्ग में रहकर अमोघवर्ष में भी काव्य-प्रतिभा का स्फुरण हुआ और उसने “कविराकमार्ग" नामक छन्द Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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