Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 262
________________ जैन कानून : प्राचीन और आधुनिक 129 वह पिता की सम्पत्ति न पा सकेगी, वह उससे जीवन निर्वाह मात्र की अधिकारी होगी अथवा वही सम्पत्ति पावेगी जो उसके पिता ने अपनी जीवनावस्था में उसे दे दी हो' । शूद्र पुरुष को केवल अपने वर्ण में अर्थात् शूद्र स्त्री से विवाह करने का अधिकार है। जिनसेन कृत आदिपुराण के एक वाक्य से विदित होता है कि उच्चवर्ण का पुरुष अपने से नीच वर्ण की कन्या से विवाह कर सकता है। परन्तु वह नियम, लगता है कि, ब्राह्मण स्मृतियों के अनुकरण पर बना है या प्राचीन काल में प्रचलित था। पश्चात् काल में ब्राह्मण पुरुष का शूद्र स्त्री से विवाह अनुचित समझा जाने लगा। एक जैन श्रावकाचार के अनुसार त्रिवर्गों में ही विवाह और पंक्ति भोजन होना चाहिये । शूद्र का शुद्रा के साथ ही विबाह और भोजन होना चाहिये। उत्तर मध्य काल (१०-११वी शती) में जैनों में अनेकों जातियाँ उपजातियाँ बनी और वे भी गोत्रादि में विभक्त होकर बहुसंख्यक हो गई। विवाह के नियमों में ये जातियाँ अपने में ही सीमित होने लगी और उनमें अपने गोत्र की कन्या को छोड़ उसी जाति के दूसरे गोत्र की कन्या से विवाह करने की प्रथा चल पड़ी । बीच में एक जाति में ही विवाह के सम्बन्ध में सम्प्रदाय भेद या प्रदेशगत भेद या आन्नाय भेद से प्रतिबन्ध लगे हुए देखे गये हैं जैसे श्वेता० सम्प्रदाय की एक जाति अग्रवाल या ओसवाल दिग० सम्प्रदाय की उसी जाति से विवाह सम्बन्ध मना करती देखी गई है । ऐसी कुछ अन्य जातियों में अनुसरण होने लगा पर आजकल यह बाधा हट सी गई है। इसी प्रकार प्रदेश की दूरी के कारण कुछ जातियाँ अपने ही प्रदेश की अपनी जाति से विवाह सम्बन्ध करती देखी गई हैं और दूसरे प्रदेश की उसी जाति से नहीं। उदाहरण के लिए राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र के हुम्मड और महाराष्ट्र, वरार, हैदराबाद आदि के शेतवाल अपने-अपने प्रदेशों में विवाह करते हैं दूसरे प्रदेश को अपनी ही जाति में नहीं। कभी-कभी भट्टारकों के आम्नाय के कारण भी एक ही जाति के लोगों में विवाह में रुकावट लगी देखी गई है पर ये सब अब बीते दिनों की बाते हैं। १. भद्र. सं. ३५; इन्द्र सं. ३२-३४ २. अर्ह. ४.४ ३. १६.२२७ ४. धर्मसंग्रह श्रावकाचार, २५६ परस्परं त्रिवर्णानां विवाहः पंक्तिभोजनम् । कर्तव्यं न च शूद्वैस्तु शूद्राणां शूद्रकैः सह ।। ५. (i) त्रैवर्णिकाचार, ३१.१ ।। अन्य गोत्र भवां कन्यां नानकां सुलरुणाम् (i) नीतिवास्यामृत ११.२० आयुष्मती गुणाढ्यां च पितृदत्ता वरेद्वरं ।। समविभावाभिजनयोः असमगोत्रयोश्च विवाहसम्बन्धः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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