Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 260
________________ जैन कानून : प्राचीन और आधुनिक __ प्रमोदकुमार चौधरी जिस तरह जैन धर्म और समाज का अपना साहित्य और कला, दर्शन और आचार संहिता है उसी तरह उसके जीवनपद्धति के अपने नियम-उपनियम, कानून-कायदें भी है। उसके सामाजिक विचार और रीतिरिवाज पर उनको दार्शनिक और धार्मिक मान्यताओं की छाप है । उसके सामाजिक दर्शन को बाह्य में कुछ नियम और कानूनों में देखा जा सकता है जिनके सहारे वह पृथक ईकाई के रूप में अब भी जीवित समाज बना है और इतर समाज में विलीन होने से बचा रहा। समाज का निर्माण अनेक परिवारों से होता है। सुखी या दुखी परिवारों से ही समाज सुखी या दुखी माना जाता है। परिवार को व्यवस्थित रखने के लिए कुछ कानून बनाये जाते हैं। जैन परिवारों को श्रावक या उपासक संघ कहा जाता है । जैन मनीषियों ने उनके नियमोपनियमों का वर्णन मूलतः उपासकाध्ययन नाम शास्त्र में किया है। काल के प्रभाव से वह शास्त्र विशीर्ण हो गया पर उसकी परम्परा को लेकर चलने वाले अनेक जैन ग्रन्थों में अब भी जैन कानून के दिग्दर्शन, होते है । उनमें प्रमुख हैं : १. भद्रवाहुसंहिता, २. नीतिवाक्यामृत, ३. अर्हनीति ४. वर्धमाननीति, ५. इन्द्रनन्दिसंहिता, ६. त्रिवर्णाचार ७. जैनपुराण चरित्र ग्रन्थों नीति प्रतिपादक नियमोपनियम । आधुनिक दृष्टि से हमारा दीवानी कानून आठ विभागों में विभक्त है--१. विवाह, २. सम्पत्ति, ३. दायभाग, ४. दत्तकविधि और पुत्रविभाग, ५. स्त्रीधन, ६. भरणपोषण, ७ संरक्षण और ८. रीतिरिवाज । विवाह परिवार निर्माण की प्रथम सीढ़ी विवाह है। यद्यपि जैन और हिन्दू समाज में विवाह एक ऐच्छिक विषय है पर दोनों के दृष्टिकोणों में बड़ा अन्तर है। जैन धर्म में इसे विशुद्ध सामाजिक नियम माना गया है जबकि हिन्दुओं में धार्मिक नियम । हिन्दुओं में पितृऋण, देवऋण आदि से मुक्ति के लिए पुत्रोत्पत्ति आवश्यक है, पुत्रोत्पत्ति इस लोक परलोक के सुख का साधन है । उससे पितरों को श्राद्ध दिया जा सकता है और पुंनामक नरक में जाने से बचा जा सकता है । इसलिए एक बड़ी धार्मिक विधि को पूरा करने के लिए विवाह आवश्यक है। वहाँ विवाह और मोक्ष एक प्रकार से सम्बद्ध बतलाया गया है। जैनधर्म में विवाह का उद्देश्य इस प्रकार नहीं माना गया है। इस धर्म में वह केवल सामाजिक विधि है । वंश उसका उद्देश्य है : स्वधर्म की परम्परा चलाने के लिए, भोगाकांक्षा को विघ्नबाधा रहित तृप्ति के लिए, चरित्र और कुल की उन्नति के लिए और देव, गुरु और अन्य आदरणीय पुरुषों की सत्कृति के लिए अच्छे गुणों से सम्पन्न कन्या से विवाह करना चाहिये ।' जैन १. धर्मसंतति मक्लिष्टां रति वृत्तकुलोन्नति देवादिसत्कृति चेच्छन् सत्कन्यां यत्नतो वरेत् (धर्मामृत, २. ६०); जिनसेन कृत आदिपुराण, १५ पर्व, श्लोक सं० ६१-६४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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