Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
सम्पत्ति-सम्पत्ति के नियमन के लिए जैनधर्म में परिग्रह परिमाण अणुव्रत के अतिरिक्त, दिग्वत, देशव्रत और भोगोपयोग परिमाण व्रत का श्रावकाचारों में विधान किया गया है पर कानून के अनुसार सम्पत्ति की व्यवस्था कुछ अलग ही है। इस दृष्टि से सम्पत्ति के स्थावर और जंगम दो भेद हैं, गृह, बाग, वगोचे आदि स्थावर सम्पत्ति है, धन धान्य आदि जंगम । कानून की दृष्टि से दोनों प्रकार को सम्पत्ति विभाजित हो सकती है परन्तु स्थावर सम्पत्ति को अविभाजित रखने की राय है ।
दाय भाग की अपेक्षा सप्रतिबन्ध और अप्रतिबन्ध दो प्रकार की सम्पत्ति मानी गई है। पहले प्रकार की सम्पत्ति वह जो स्वामी के मरण के पश्चात् उसके बेटे और पौत्रों को सन्तान क्रम से सीधी पहुँचती है। दूसरी वह है जो सीधी रेखा से न पहुँचे वरन् चाचा ताऊ आदि कुटुम्ब संबंधियों से मिले। दूसरे प्रकार की सम्पत्ति अविभाज्य है। अविभाज्य सम्पत्ति वह भी है जिसे पैतृक सम्पत्ति की सहायता के बिना अपने गुणों या पराक्रम से या विद्या से या युद्ध अथवा सेवाकार्य से प्राप्त की हो । स्त्री धन भी अविभाज्य है । खानों में गड़ी हुई उपलब्ध सम्पत्ति का अथवा पिता के समय की डूबी हुई सम्पत्ति का जिसे किसी भाई ने अविभाजित सम्पत्ति की सहायता के बिना प्राप्त किया हो, विभाग नहीं किया जा सकता। जो साधारण आभूषण आदि पिता ने अपनी जीवनावस्था में अपने पुत्रों या उनकी स्त्रियों को स्वयं दे दिया हो वे भी विभाग योग्य नहीं है ।
विभाग योग्य सम्पत्ति-हिन्दू कानून के विरुद्ध जैन कानून विभाग को उत्तम बतलाता है । इससे धर्म की वृद्धि होती है और प्रत्येक भाई को पृथक् पृथक् धर्मलाभ का शुभ अवसर प्राप्त होता है। विभाग योग्य सम्पत्ति को नीति और मुख्य रिवाज के अनुसार दायादों में विभक्त करना चाहिये। पिता की जो सम्पत्ति विभाग योग्य नहीं है, उसको केवल सबसे बड़ा पुत्र पावेगा। पिता की उपाजित सम्पत्ति जैसे राज्यादि जो ज्येष्ठ पुत्र को मिली है, उसमें छोटे भाइयों को, जो विद्याध्ययन में संलग्न हों, कुछ भाग उन्हें गुजारे के लिए मिलना चाहिये। परन्तु विभाग योग्य सम्पत्ति में अन्य सब भाई समान भाग के अधिकारी हैं जिससे वे व्यापार आदि व्यवसाय कर सकते हैं। दुराचारी, ब्यसनी पुत्र को अदालत के द्वारा अपने भाग से वंचित रखा जा सकता है।
पितामह की सम्पत्ति में से पिता को जीवन अवस्था में, पुत्रों को, उनकी माताओं को और पिता को समान भाग मिलना चाहिये। पिता की स्वयं अर्जित सम्पत्ति में से पत्रों को विभाजित करने का कोई अधिकार नहीं है। जो कुछ भाग पिता प्रसन्नतापूर्वक पुत्र को पृथक् करते समय दे, उसे उसी पर सन्तोष करना चाहिये । माता की जीवनावस्था में जिस द्रव्य की वह स्वामिनी है, उसको भी पुत्र केवल उसकी इच्छानुसार ही पा सकते हैं।
जैन कानून में भाइयों, बहिनों, विधवा आदि के लिए सम्पत्ति के विभाजन के सम्बंध में विस्तार से विचार किया गया है । विस्तार भय से यहाँ सबका उल्लेख संभव नहीं है ।।
दाय—सम्पत्ति के उत्तराधिकार को दाय कहते हैं। इन्द्रनन्दि जिनसंहिता, वर्धमान नीति और अर्हन्नीति के अनुसार इस दाय को पाने वाले दायादों का क्रम इस प्रकार है१. विधवा, २. पुत्र, ३. भ्राता, ४. भतीजा, ५. सात पीढ़ियों में सबसे निकट सपिण्ड,
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