Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 267
________________ 134 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. दाय भाग सम्बन्धी अनेक कानून जैन ग्रन्थों में दिये गये हैं जिसका विस्तार भय से यहाँ देना ठीक नहीं । दाय सम्बन्धी सभी विवाद, कानून या स्थानीय रिवाज के अनुसार (यदि कोई हो) न्यायालयों द्वारा निर्णय करा लेना चाहिये जिससे पुनः झगड़ा न होने पावे । दत्तक विधि और पुत्र विभाग कानून के अनुसार पुत्र दो ही प्रकार के माने गये है : १. औरस और २. दत्तक । वैसे कहने के लिए बहुत प्रकार के सम्बन्धियों को पुत्र शब्द से कह सकते है, यथा सहोदर (लघुभ्राता), पुत्र का पुत्र और पाला पोषा बच्चा आदि । औरस पुत्र उसे कहते हैं जो विवाहिता स्त्री से उत्पन्न हो और दत्तक वह है जो गोद लिया गया हो। ये दोनों ही मुख्य पुत्र गिने गये हैं। गौण पुत्र जब गोद लिये जावें तभी पुत्रों की भांति दायाद हो सकते हैं, अन्यथा अपने वास्तविक सम्बन्ध से यदि वे अधिकारी हों तो दायाद होते हैं जैसे लघुभ्राता औरस और दत्तक दोनों हो सपिण्ड गिने जाते हैं और इसलिए पिण्डदान करने वाले आर्थात् वंश चलाने वाले माने गये हैं। शेष पुत्र यदि अपने वास्तविक सम्बन्धी से सपिण्ड हैं तो सपिण्ड होंगे अन्यथा नहीं। गोद वही व्यक्ति ले सकता है जिसके औरस पुत्र न हो था मर गया हो या दुरावार के कारण निकाल दिया गया हो और पुत्रत्व तोड़ दिया गया हो । दत्तक पुत्र में मोल लेकर गोद लिया गया पुत्र भी शामिल है। यदि मोल लेकर वह गोद न लिया गया हो तो वह मुख्य पुत्र के कर्तव्यों का अधिकारी नहीं हो सकता। नीतिवाक्यमृत के अनुसार जो पुत्र गुप्त रीति से उत्पन्न हुए हों या जो फेंके हुए हों, वे भी मुख्य पुत्र हो सकते हैं तथा पिण्डदान के योग्य (कुल के चलाने वाले) माने गये हैं परन्तु वास्तव में वे औरस पुत्र ही हैं। किसी कारण से उनकी उत्पत्ति को छियाया गया था या जन्म के पश्चात् किसी हेतु विशेष से उनको पृथक् कर दिया गया। गोत्र जैन समाज में गोत्रों की संख्या कितनी है, ज्ञात नहीं। सामान्यतः उनकी संख्या ८४ बताई जाती है । प्रकाशित और अप्रकाशित रचनाओं से संगृहीन जैन गोत्रों की संख्या १४० पहुँच जाती है परन्तु ये सूचियाँ इस अर्थ में विस्तृत नहीं है क्योंकि वर्तमान में ज्ञात जैन मोत्रों के उल्लेख इनमें नहीं है। ऐसे गोत्रों की संख्या बहुत है। अग्रवालों के १७ गोत्र है ओसवालों के १४४४, खण्डेलवालों के ८४, श्रीमालियों के १३५, पोरवाड़ों के २४, डुम्मडों के १८, शैतवालों के ४४ आदि । मैसूर के जैनों में १३० गोत्र बतलाये जाते है पर वर्तमान में केवल २४ ही प्रमुख रूप में पाये जाते हैं। जैनों में ऐसे कोई निश्चित नियम नहीं कि विवाह सम्बन्ध में कितने गोत्रों की संख्या वजित की जाय । यह विभिन्न जातियों में प्रचलित प्रथा पर निर्भर है। परिवारों में कुछ स्थानों में १६ गोत्रों और कुछ स्थानों में ८ या ४ या केवल २ गोत्रों में विबाह सम्वन्ध टालने की विधि है । शेतवालों में अनेकों गोत्र बतलाये जाते है उनमें से वर्तमान में केवल ४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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