Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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प्राकृत भाषा और उसका मूलाधार
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ऐसा अवगत होता है
"जिन" का अपर पर्याय माना है । ऋग्वेद संहिता में " मुनयो वातरसना " यह लिखते हुए स्पष्ट ही सूचित किया है कि दिगम्बर रूप में ये मुनि घूमते थे । कि वाजसनेयी संहिता के आधार पर इन लोगों की दो धाराएँ थीं । एक तंत्र की धारा और और दूसरी योग की धारा । ज्येष्ठ व्रात्य ही सूत्रकार की दृष्टि में अर्हत् थे । ऐसा निर्देश मिलता है कि घूमने के कारण ही ये व्रात्य शब्द से अभिहित हुए । बौद्ध युग और तीर्थंकर के समय का संघ इस प्रसंग में स्मरणीय है । व्रात्य में विद्यागौरव की परोक्ष रूप से स्वीकृति उपलब्ध होती हूँ । अस्तु यह विषय तो विचारणीय है । किन्तु जहाँ तक प्राकृत भाषा का प्रश्न है यह बढ़ती हुई नाथ सम्प्रदाय तक तांत्रिक धारा के साहित्य के रूप में गृहीत हुई किन्तु एक अन्य प्राकृत जो सभी के बोल-चाल की भाषा थी वह भी सामने आयी जिसका साहित्य अतिशय विशाल है । जितने भी नाटक लिखे गये हैं उनमें प्राकृत भाषा का विभिन्न रूप परिगृहीत मिलता है । जयन्त भट्ट ने 'आगमडम्बर' नाटक में
बौद्ध और जैन के लिए प्राकृतभाषा का व्यवहार किया है ।
आगमडम्बर में पात्रभेद में गृहीतभाषा के आधार पर भी यह तथ्य सर्वथा दृढ़ हो रहा है कि बैदिक सिद्धान्तों की मान्यता जिन धार्मिक सिद्धान्तों में उपलब्ध नहीं है उनकी भाषा प्राकृत मानी गई है । प्रथम अङ्क में शाक्यभिक्षु और उपासक की जो उसी बौद्धमार्ग का था उनमें उपासक की भाषा प्राकृत मानी गई है अर्थात् वह अपने कथन को प्राकृत भाषा के द्वारा व्यक्त करता है । ऐसा अवगत होता है कि संस्कृत भाषा की विशिष्ट व्यक्तियों में अपने सिद्धान्त के प्रकाशन के रूप में प्रतिष्ठा हो चुकी थी किन्तु अन्य साधारण व्यक्ति की भाषा प्राकृत ही थी । इसी प्रकार द्वितीय अङ्क में जैन सिद्धान्तों का आडम्बर प्रस्तुत है जिसकी भाषा भी आचार्य जयन्तभट्ट ने प्राकृत ही स्वीकार की है । इसी अंक में नीलाम्बर की कथा भी सन्निहित है । उनकी भाषा भी प्राकृत ही है । इसी प्रकार ऐसे सिद्धान्तों की भाषा प्राकृत गृहीत की गई है । अतः ऐसा अवगत होता है कि ये लोग संस्कृत युग में भी प्राकृत भाषा का अवलम्बन करते थे । जैसा कि मैंने पूर्व विश्लेषण से स्पष्ट किया है कि ऋग्वेद काल से उच्चारण की कुशलता से भिव्यक्ति को प्रधान स्थान देने वाले प्राकृत भाषा का अवलम्बन करते हैं । ने अपने प्राकृत - व्याकरण में कहा है :
शून्य व्यक्ति मात्र अपने भावाजैसा कि बुलनर
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"The different Prakrits were mutually understandable among the educated. A speaker of Sanskrit whose mother-tongue was the spoken form of any one of the Prakrits, would really understand any of the literary Prakrits In the older stage the difference was still less marked. Still further back we should find only the difference between 'correct' and 'incorrect' pronunciation ...... the difference between the speech of educated and uneducated people speaking substantially the language." (Woolner, An Introduction to Prakrit, pp. 8-9 ).
जैन साहित्य तो वस्तुतः प्राकृतभाषा का एक विशाल साहित्य है जिनमें साहित्यिक,
१. ऋग० सं० १०।१३६।२
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