Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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प्राकृत भाषा और उसका मूलाधार
123 यह विचारणीय है कि भाषा के बिकास-क्रम में किन व्यक्तियों ने इसे अपनाया। मेरी यह धारणा है कि भारत वर्ष में अनेक गण धर्मों का उद्भव हुआ । इन धर्मों का परिचय इतिहास पुराण एवं पंचम वेद में तथा बौद्ध शास्त्र में उपलब्ध होता है। इन गण धर्मों की धाराओं को भागवत धारा और पर्वतीय शैवधारा के रूप में विभाजित किया जाता है और उन दोनों के मध्य में शाक्तधर्म इसे अपनी शक्ति संचार के द्वारा पुष्पित और पल्लवित करता रहा । ये दोनों धाराएँ आगम धारा के रूप में मानी जा सकती है । यह संदेह नहीं कि आरम्भ में ये दोनों धाराएँ आदिम थीं किन्तु व्रात्यों के सम्पर्क से शवधारा अवैदिक धारा के रूप में संगृहीत हुई । व्रात्य शब्द संघ या गण का बाचक है व्रात्य शब्द व्रत से निष्पन्न है । ऋग्वेद संहिता में "अनुव्रात्य शस्त्रसख्यमोयुः" १।१६३१८ एवं "वात्यं वात्यं गणं गणं ३।२६।६, ५।५३१११ राजा वातश्च प्रथमो बभूव १०।३४।१२, जोवं वातं सचेमही १०११७१५ । ऋग्वेद के इन मन्त्रों से यह अनुगत हो रहा है कि व्रात्यों का एक पर्वतीय संघ था जो कभी-कभी "व्रात्यस्तोंम अनुष्ठान के फलस्वरूप शुद्धीकरण के द्वारा वैदिक या आदिम समाज के अन्तर्गत हो जाते हैं । इन्हीं लोगों की भाषाएं प्राकृत र्थी । इनके साथ वैदिकों का व्यवहार चलता था. जिसकी सूचना कात्यायन की भाषा में "व्यवहार्या भवन्ति" के द्वारा उपलब्ध है । ताण्ड्य ब्राह्मण के अनुसार व्रात्यों के चार वर्ग थे जो हीन, निन्दित, कनिष्ठ एवं ज्येष्ठ के नाम से जाने जाते थे । आज भी हीनयान, महायान, दिगम्बर, श्वेताम्बर और नीलाम्बर के वर्णन के अनुसार यह अवगत होता है कि उन लोगों की भाषा अपरिमार्जित थी। अदीक्षित होते हुए भी वह दीक्षित के समान ही अपने विषयों का प्रतिपादन करते थे। यह भी अवगत हो रहा है कि उनके कपड़े लाल अथवा काले या नीले होते थे या दिगम्बर रहते थे। कोई-कोई व्रात्य गृहपति भी होते थे। इनकी प्राकृत भाषा एवं पाली भाषा मानने का आधार शाक्यायन श्रौतसूत्र है । वहाँ लिखा गया है कि मगध देशीय ब्रह्मबन्धु को व्रात्यों का धन दिया जाता था “वातेभ्यो व्रात्यषनानि ये व्रात्यचर्याया अविरता स्युः ब्रह्मवन्धने वा मगधदेशीयाः' । अथर्वसंहिता के अनुसार व्रात्य अत्यन्त प्रशस्त माने जाते थे और उन्हें परमपुरुष के रूप में माना गया "व्रात्य वा इदम् अग्र आसोत् ईयमान एवं प्रजापति समेधयत् । इस उद्धरण से यह स्पष्ट है कि सृष्टि के आरम्भ काल से हो वात्य थे और प्रजापति को इन्होंने प्रेरणा दी और प्रजापति ने आत्मनिहित सुगम ज्योति से विश्व के मूल तत्त्व के रूप में सत् एवं ब्रह्म को सृष्टि की और जगत् उत्पन्न हुआ। और महादेव ईशान एक व्रात्य के रूप में आविर्भूत हुए जो आज भी दिगम्बर है । व्रात्यों का वर्णन करते हुए यह उपलब्ध होता है कि वह सतत परिभ्रमणशोल एवं देवगणों के अनुचर के रूप में थे । इनकी महिमाओं का वर्णन व्रात्य काण्ड में उपलब्ध है और परम पुरुष विद्वान व्रात्य के रूप में इनका वर्णन मिलता है । तपस्या इनकी साधना का मूलाधार था और एक व्रात्य अर्थात् ज्ञानो महादेव जी इनके उपास्य थे । और विकास-क्रम में सभी उनके उपासक एक व्रात्य होने को क्षमता प्राप्त करते थे । विद्वान व्रात्य का प्रभाव जनसाधारण में था। यह भी वर्णन मिलता है कि एक व्रात्य आरक्त हुए और राजन्य अर्थात् क्षत्रिय वर्ग की उत्पत्ति के मूलाधार हुए। अनेक वर्णनों के
१. शा० श्री० सू० १६५।१००।२८ २. १६६ अ० पेप्पलादशाखा
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