Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 254
________________ प्राकृत भाषा और उसका मूलाधार 121 also.. Prakrit was freely used...all women and the lower classes spoke Prakrit. This is probably a true picture of the linguistic state of India at that time. गुणे ने भी अपने Introduction to Comparative Philology नामक ग्रन्थ में लिखा है कि प्राकृत का अस्तित्व निःसंदेह वैदिक बोलियों के साथ वर्तमान था। इन्हीं प्राकृतों से परवर्ती साहित्यिक प्राकृतों का विकास हुआ। वेदों एवं द्विजातियों की भाषा के साथ-साथ यहाँ तक कि मन्त्रों की रचना के समय भी एक ऐसी भाषा प्रचलित थी जो द्विजातियों की भाषा से अधिक विकसित थी। इस भाषा में मध्यकालीन भारतीय बोलियों की प्राचीनतम अवस्था की प्रमुख विशेषताएँ वर्तमान थीं। ___ मीमांसा में भी आर्य म्लेच्छाधिकरण से इस विचार को संपुष्टि होती है। अनेक शब्दों के अर्थ पर विचार करते हुए मोमांसकों ने यह स्थिर किया है कि म्लेच्छ माषा के प्रयुक्त अर्थ हो स्वीकार करने योग्य हैं । पूर्व में यह निर्दिष्ट किया जा चुका है कि यास्क के निर्वचन के आधार पर प्राकृत भाषा में मृदुता या माधुर्य पर अधिक ध्यान दिया गया है । भारोपीय भाषा के विकास को और दृष्टिपात करने पर मुझे यह कहने के लिए बाध्य होना पड़ता है कि प्राकृत की प्रकृति वैदिक भाषा के समान ही है। मृदुता के आधार पर एवं उच्चारण की विषमता के आधार पर व्यञ्जनान्त शब्दों का प्रयोग प्रायः नहीं के समान है । लोक भाषा या उच्चारण का अतिशय महत्त्व न होने के कारण ही ऐसा हुआ होगा । किन्तु इसमें दो मत नहीं है कि प्राकृत और संस्कृत की मूलभूमि एक ही है, क्योंकि रुद्रट ने अपने काव्यालङ्कार में लिखा है कि प्राकृत शब्द का अर्थ व्याकरणादि संस्कारों से शून्य स्वाभाविक वचन है उससे उत्पन्न अथवा उसी भाषा को प्राकृत कहा जाता है, अथवा पहले की गयी भाषा प्राकृत है; जो बालक, महिला आदि के लिए सहजगम्य है। इस तरह आचार्यों का इस अंश में मतभेद उपलब्ध हो रहा है कि संस्कृत प्राकृत की मूल भाषा है या प्राकृत ही संस्कार वशात् संस्कृत है। अपना सिद्धान्त प्रस्तुत करने के पहले कतिपय आचार्यों के प्राकृत और संस्कृत के सम्बन्ध में सिद्धान्तों को प्रस्तुत करना उचित समझती हूँ। हेमचन्द्र के अनुसार प्रकृतिः संस्कृतम्, तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम् । संस्कृतानन्तरं प्राकृतधिक्रियते । संस्कृतानन्तरं च प्राकृ तस्यानुशासनं सिद्धसाध्यमानभेदसंस्कृतधीतैरैव तस्य लक्षणं न द्वैश्यस्य इति ज्ञापनार्थम् ।। इसी अर्थ का समर्थन मार्कण्डेय के प्राकृत सर्वस्व से भी होता है प्रकृतिः संस्कृतम् । तत्रभवं प्राकृतमुच्यते।। १. Tarapurwala-Elements of the Science of Language. ____P. 245-256. २. An Introduction to Comparative Philosophy p. 163 by Dr. P. D. Gune. ३. सिद्धहमशब्दानुशासन ८।१।१ 'अथ प्राकृतम्' ४. प्राकृतसर्वस्व । १।१ 8a Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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