Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 253
________________ 120 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 निर्देश किया है अर्थात् एक को सुर की भाषा और दूसरे को असुर की भाषा माना है। उनका यह कथन महाभाष्य की पंक्तियों से सर्वथा समन्वित है।' इस विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि वाणी के दो रूप वैदिक काल में उच्चारण के आधार पर उपलब्ध हैं । अम्भणी ऋषि की पुत्री वाक् ने इन्हें वाणी के प्रयोगकर्ता को दृष्टि में रखकर देवी वाक् और मानुषी वाक् का निर्देश किया। यही दैवी वाक् प्रयोग में आकर द्विजातियों को वाणी के रूप में उपलब्ध हुई । मानुषी वाक् प्राकृत वाक् को मृदुवाक् के रूप में मानना उचित प्रतीत होता है जिसका मूलाधार यास्क ने मृघ्र का मृदु और मानुषी वाक् के रूप में किया है और जिसका दिग्दर्शन पहले कराया जा चुका है। वाल्मीकि रामायण ने इस भाषा के भेद को दृष्टि में रखकर ही कहा है "यदि वाचं प्रयच्छामि द्विजातिरिव संस्कृताम् । रावणं मन्यमाना सा सीता भोला भविष्यति ।" सु०का० ३०।१८। भाषा वैज्ञानिकों ने भी वाणी का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि भाषा के दो भेद हैं-एक प्राथमिक प्राकृत भाषा जो वैदिक ऋचाओं के साथ ही प्राथमिक प्राकृत व्यवहार में त्याती थी। दूसरे शब्दों में विश्लेषण करने पर यह कहा जा सकता है कि एक साहित्यिक भाषा थी और दूसरी बोल-चाल को भाषा । भारतीय चिन्तनधारा के विकास-क्रम में इस भाषा ने बुद्ध और जैन के समय साहित्यिक भाषा का रूप धारण कर लिया। तारापुरवाला ने Elements of the Science of Language में इस विषय को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि यही प्राकृत तीन अवस्थाओं में स्थान प्राप्त करतो है--१. प्राथमिक अवस्था, २. मध्यावस्था, ३. अन्तावस्था जिसे अपभ्रंश काल कहा जा सकता है। हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण में अपभ्रंश को बोल-चाल की भाषा के रूप में निर्दिष्ट किया है। किन्तु जब दर्शन आचार से अतिशय सम्बद्ध हो लोकसान्निध्य प्राप्त करता है तो उसकी भाषा भी सम्भवतः लोक व्यवहृत भाषा रहेगी। यही कारण है कि जैन दर्शन साहित्य या उसके लोक साहित्य का विकास प्राकृत भाषा में होता है। "The different Prakrits were mutually understandable among the educated. A speaker of Sanskrit whose mother tongue was the spoken form of any one of the Prakrit would readily understand any of the literary Prakrits... In the older stage the difference was still less marked. Still further back we should find only the difference between 'correct' and incorrcct' pronunciation...the difference between the speech of educated and uneducated people speaking substantially the same language.2. In the second stage the languages usually known by the name of “the Prakrits” were the chief spoken Aryan languages of the country. And in course of time literature began to be produced in these languages १. द्र० शतपथ ब्राह्मण ३।२।१।२३ तेऽसुरा आत्त वच सो हेऽलवो हेऽलवै इति वदन्तः पराबभूवुः ।२४। तत्रेतामपि वाचमृदुरुपजिज्ञास्याम् । स म्लेच्छः । तस्मान्न ब्राह्मणो म्लेच्छेत् असुर्या ह्येषा वाक् । श० वा० ३।२।१।२३।२४ २. Woolner-An Introduction to Prakrit pp. 89 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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