Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 251
________________ 118 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 नहीं हो सकता है, इसमें दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों का मत है। दोनों ही मतों में अनन्त गुणवान परमात्मा के स्वरूप की प्राप्ति चरम लाभ है और यही मुक्ति है मुक्त जीव पुनः संसार में नहीं आता है । संसार का ध्वंस होने पर भी मुक्त पुरुष की हानि नहीं होती क्योंकि वह नित्य परमात्मस्वरूप में स्थित रहता है।' भोक्तृत्व सृष्टित्व से रहित उसका कर्तृत्व नाश नहीं होता वह चेतन एवं सक्रिय रहता है। केवल ज्ञान, केवल दर्शन से वह विश्वावगम हेतु बुद्ध रहता है । सिद्ध जीव रूपरहित ज्ञान और दर्शन स्वरूप एवं अतुलनीय सुख सम्पन्न रहता है । अरूपिणो जीवधना ज्ञानदर्शनसंज्ञिताः । अतुलं सुखं संप्राप्ता उपमा यस्य नास्ति तु ॥२ मुक्त जीव जैन दर्शन में अकाय एवं अमूर्त रहता है । नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने लिखा है कि विदेह सिद्धगण कार्यरहित अष्टगुण सम्पन्न, नित्य उत्पाद्य एवं व्ययसंयुक्त एवं लोकादि में अवस्थित रहते है। निश्चयनय के अनुसार सिद्ध अतीन्द्रिय, अमूर्त, अकाय और निराकार रहता है और व्यवहारनय में किञ्चित् चरम शरीर से न्यून, सर्वकाल तृप्त, सतत सुखी रहता है। इन लोगों ने लिखा है कि सिद्धों के स्वरूप वर्णन शब्द से संभव नहीं है । आचाराङ्ग सूत्र ११५।६ उद्देश्य में अतुलनीय स्वरूप वर्णन किया गया है। जिस वर्णन का शब्द के द्वारा कथन सम्भव नहीं है । जैन दर्शन सम्यक् द्वैतवादी है इस मत में चेतन एवं अचेतन आत्मा का भेद प्रामाणिक है और शाश्वत है। परमात्मा सगुण है; जैसे गुणविहीन द्रव्य नहीं हो सकता वैसे द्रव्यविहीन गुण भी नहीं हो सकता। इसीलिये परमतत्त्व को सगुण माना है और वह अनन्तगुण युक्त है । अद्वैत वेदान्त को वह नहीं मानता क्योंकि जैन दर्शन में परमात्मा अनेक है, इसलिये जीवात्मा की परमभूमि ही परमात्मा है । अतः जीवात्मा जिस प्रकार बद्ध दशा में अनेक है वैसे मुक्त दया में भी अनेक है, अतः यह भी मानना ही पड़ेगा कि जैन दर्शन में सभी परमात्मा सर्वथा समान नहीं । ___ उपसंहार में यही कहा जा सकता है कि जैन दर्शन में जन्म मृत्यु का नाश करना ही मुक्ति है । कुन्द के मत के अनुसार जैन दर्शन के अतिरिक्त सभी दर्शन मिथ्या दर्शन हैं और उनका मार्ग भी मलिन है। इसलिए एकमात्र जैन धर्मावलम्बी ही जैन दर्शन के अधिकारी हैं इसलिये अन्य धर्म का अवलम्बन करने वाले व्यक्ति इस दर्शन की प्रक्रिया के अनुसार मुक्तिलाभ के अधिकारी नहीं हैं । १. रत्नकरण्डकश्रावकाचार ५।१२। २. उ० सू० ३५।५५ । ३. द्रव्यसंग्रह १४। ४. औपपातिक सूत्र ३।१९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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