Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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116 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 अश्वघोष ने निर्वाण की व्याख्या करते हुए लिखा है कि जीव जैसे शान्त होकर कहीं अन्यत्र नहीं जाता अर्थात् अन्य स्थान में नहीं जाता है । वैसे हो जीव भी तृष्णा क्षय से साध्य निर्वाण की प्राप्ति के बाद अलग अस्तित्व नहीं रखता
"दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेतो नैवानि गच्छति नाप्यनन्तम् । दिशन्न काञ्चित् विदिशन्न काञ्चित् स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् ॥"
इस विश्लेषण से निःशेष निर्वाण में ही निर्वाण शब्द का प्रयोग प्रतीत होता है । अद्वैत वेदान्तियों ने भी निरुपधिशेष और सोपधिशेष के रूप में मोक्ष का दो भेद माना है। वेदान्तियों ने जोव को स्वरूपतः ब्रह्म ही माना है और अविद्या का नाश होने पर जीव की ब्रह्मस्वरूप स्थिति की प्राप्ति होती है । वस्तुतः जन्म मृत्यु ही अमंगल या दुःख का कारण है जन्म मृत्यु राहित्य ही अमृतत्व या निःश्रेयस है । अपवर्ग भी त्यागार्थक अप् उपसर्ग वृज् धातु से निष्पन्न है, इसका अर्थ भी अनात्म वर्ग को जो आत्मरूप से ग्रहण किया था उसकी आत्यन्तिक वर्जना की प्राप्ति रूप ही अपवर्ग है। मैंने पूर्व विश्लेषण से यह प्रस्तुत किया है कि मिथ्या-ज्ञान, दोष, प्रवृत्ति और जन्म ही दुःख या अनात्म वर्ग है मूलतः इसका आत्यन्तिक त्याग ही मोक्ष है । मुक्ति के विषय में अनेक प्रश्न उपस्थित होते है। मुक्त जीव की क्या स्थिति रहती है ? जीवन्मुक्त और विदेहमुक्त का क्या स्वरूप है ? किन्तु इस लधुकाय निबन्ध में इन सभी विषयों का विश्लेषण सम्भव नहीं है । अतः जैन दर्शन को दृष्टि में रखकर मुक्ति का स्वरूप निरूपण करने का प्रयास इसमें किया गया है । एक ऐसा प्रसङ्ग मिलता है कि पाश्वनाथ तीर्थङ्कर के अनुयायी श्रमणकेशी जो महावीर तीर्थङ्कर के अनुयायो थे उन्होंने गौतम से जिज्ञासा को कि शारीरिक, मानसिक दुखों से पीड़ित प्राणियों के लिये क्षेन, शिव और अनाबाध त्याग की प्राप्ति का कौन सा साधन है । गौतम ने उत्तर दिया कि लोक के अग्रभाग में एक ध्रुवस्यान है । जहां जरा, मृत्यु, व्याधि एवं वेदना का स्थान नहीं है। यह सत्य है कि यह सामान्य रूप में आरोहण योग्य नहीं
निव्वाणं हि अवाहं ति सिद्धी लोगग्डम् एवयखेमम् सिवं अणावाहं जं सिघं चरन्ती महेसिणो ॥'
इस प्रसग में निर्वाण और अबाधनाम कहा गया है । जैन सिद्धान्त में इसी स्थान में सिद्ध पुरुष गमन करते हैं । इसी के आगे विश्लेषण प्रसङ्ग में कहा गया है
तं ठानं सासयं वासं लोयगरिस्मदुरारुहं।। जं सम्पत्ता न सोयन्ती तवोहन्त करामुनी ॥
यह वही स्थान है जिसे वैदिक धारा में 'न स पुनरावर्तते' के द्वारा निर्दिष्ट किया गया है। लोकाकाश और अलोकाकाश के मध्य में इस स्थान को माना गया है। संसार चक्र के विनाश करने में सपर्थ मुनिगण हो इस शोक से रहित स्थान को प्राप्त करते हैं। जिसका वर्णन करते हुए लिखा गया है ।
निम्ममे निरहङ्कारे वीयरागो अनासवो !
सम्पत्तो केवलं नागं सासयं परिनिव्बुन । १. अभिधानराजेन्द्र, पञ्चम भाग, पृ० ११५.
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