Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
View full book text
________________
जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में मुक्ति
117 कैवल-ज्ञान-सम्पन्न पुरुष निर्मम, निरहंकार, अनाश्रय एवं शाश्वत परिनिवृत्त होकर जन्म, जरा, व्याधि, मरण, शोक, दुख भयसे परिमुक्त अवस्था रूप निर्वाण को प्राप्त करता है । दुःख विमुक्ति से प्रारम्भ होकर जैन दर्शन में प्रतिद्वन्द्व रहित, सुखस्वरूप तथा अविनश्वर स्वरूप को ही मोक्ष माना गया है । बौद्धों के समान सुःख-दुख राहित्यावस्था नहीं है । रत्नकरण्डकश्रावकाचार में लिखा गया है
जन्म-जरामयमरणैः शोकैःदुखैर्भयैश्च परिमुक्तम् । निर्वाणं शुद्धसुखं निःश्रेयसमिष्यते नित्यम् ॥'
त्रिदण्डी के मत में परमात्मा में जीवात्मलय माना है। किन्तु यहाँ प्रलय शब्द का अर्थ सुखदुःखावच्छेदक शरीर रूपी नाम कर्म का नाश है। सर्वार्थसिद्धि में स्वर्ग को लोकाकाश और अलोकाकाश के सीमास्थल में क्षेत्राकार स्थान को माना है मुक्त जीव की यही स्थिति रहती है। जैन दर्शन में निर्वाण को परवर्ती अवस्था माना है। क्योंकि उत्तराध्ययनसूत्र में लिखा है
नादर्शनीयो ज्ञानं ज्ञानेन विना न भवन्तु चारित्र्यगुणाः । अगुणिनो नास्ति मोक्षः नास्त्यमोक्षं निर्वाणम् ॥२
ऐसा अवगत होता है सिद्ध शिक्षा में गमन निर्वाण है और कर्म से मुक्ति मोक्ष है । इस दर्शन में जीव सभी दुखों का अन्त कर सकता है । और
"दुःखान्तनिर्वाण-जीवाः सिद्धन्ति बुध्यन्ते, मुच्यन्ते, परिनिर्वान्ति सर्वदुखानामन्तं कुर्वन्ति ।"
पूर्वोक्त पंक्ति में जीव शब्द बहुवचनान्त है । प्रकरण के अनुसार मुक्ति योग्य जीव का ही निर्देश किया गया है । मुक्ति के योग्य और मुक्ति के अयोग्य भेद से जीव दो प्रकार के हैं । मुक्ति के अयोग्य जीव नित्य बद्ध नाम सेजैन दर्शन में कहे गये हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि मुक्ति के योग्य होने से ही सभी व्यक्ति मुक्त नहीं हो जाते। इस प्रसङ्ग में भगवान महावीर और इन्द्रभूति गौतम के मध्य प्रश्नोत्तर का प्रसङ्ग मिलता है । उस प्रसङ्ग से यह विषय अतिशय स्पष्ट होता है । गौतम ने कहा-भगवान् जीव उस क्रिया का सम्पादन करता है जिससे सम्पूर्ण कर्मक्षय हो जाते हैं । इसको पारिभाषिक शब्द में अन्त क्रिया शब्द से निर्दिष्ट किया जाता है ।-'कृत्स्नकर्मक्षयान्मोक्षः। भगवती सूत्र में कहा गया है। 'कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणानां मोक्षप्राप्तिः'५ आगे इस विषय पर विचार करने से यह स्पष्ट है कि जैन दर्शन में सभी को मुक्ति नहीं मिलती। जैसे भागवत धर्म में सभी व्यक्तियों की मुक्ति होती है, किन्तु दिगम्बर जैन मत में स्त्री और शूद्र को मोक्ष नहीं होता। गृहस्थ मुक्त
१. र० श्रा०, पृ० ९२ । २. सू० २८।३० । ३. उ० सू० २९।१ । ४. प्रज्ञापनासूत्र अ० १५ । ५. भगवती सूत्र १।२।१०६ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org