Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 252
________________ प्राकृत भाषा और उसका मूलाधार डॉ० शारदाचतुर्वेदी दार्शनिक परम्परा के समान ही भाषा की परम्परा एवं उसके तथ्यों का विवेचन पूर्व-काल से चला आ रहा है। निरुक्त का अध्ययन मुझे इस तथ्य से सुपरिचित करता है कि भौगोलिक एवं ऐतिहासिक मूलभित्ति पर भाषा का तुलनामूलक अध्ययन प्राचीनतम वाङ्मय की उपलब्धि है। आज का भाषा-विज्ञान उस भूमि पर इधर-उधर की भ्रमि में ही अपने भाषा-विश्लेषण को एक अमूल्य निधि के रूप में स्वीकार करता है। यह अत्युक्ति नहीं कि ध्वनि चिन्तन के साथ हो भाषा चिन्तन के रूप में भाषा का तुलनात्मक विश्लेषण ऋग्वेद की ऋचाओं में उल्लेख पूर्वक अनेक ऋषियों के दर्शन हैं । ऐन्द्र, चान्द्र, जैनेन्द्र शाकटायन तथा यास्क आदि भाषा शास्त्रीय परम्परा की आढ्यता के परिचायक हैं। जैन, बौद्ध और मीमांसक वस्तुतः भाषा दर्शन के प्राचीनतम चिन्तक हैं। प्राकृत का भाषा-शास्त्रीय विवेचन वस्तुतः पूर्वयुग में बहुत ही न्यून कहा जा सकता है। वाल्मीकि रामायण के सुन्दर काण्ड में हनुमान की उक्ति-"यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम्'। यह मुझे दैवी वाक् और मानवीय वाक् के भेदों की सूचना देता है और उसका मूल उत्स है "अहमेव स्वयमेव वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः"१ । आज को आर्य भाषा जिसका विश्लेषण करते हुए सभी भाषाएँ उसके अङ्क में समा जाती हैं। किन्तु वेद हमें यह सूचना दे रहा है कि पणियों और असुरों की भाषा मृध्रवाक् थो जिसका विश्लेषण करते हुए निरुक्तकार ने लिखा है मृघ्र भाषा अर्थात् मृदुवाक् । मृघ्र शब्द भ्रष्ट उच्चारण वाले लोगों के लिए रूढ़ हो गया। यह वही भाषा है जो म्लेच्छ या अपभ्रंश का मूलाधार है। यही मृध्र २ शब्द म्लेच्छ का अपर पर्याय है। इस भाषा में स्वर, वर्ण आदि का समीचीन उपचार नहीं रहता था। इसीलिए आचार्य पतञ्जलि ने अपशब्द के लिए म्लेच्छ की भाषा का निर्देश दिया है । महाभाष्य का यह कथन शतपथ-ब्राह्मण से प्रभावित है । शतपथ में भी भाषा का विश्लेषण करते हुए महाभाष्य के इस कथन का निर्देश मिलता है। उसमें भी भाषा का वैविध्य प्रदर्शन करते हुए अपशब्द और भारती के रूप में १. ऋग्० १०।१२५।५ २. द्रष्ट० निरुक्त ६।३१ दनो विश इन्द्र, मृघ्रवाचः (ऋ० १११७४।२)-दान मनसो नो मनुष्यानिन्द्र मृदु वाचः कुरु । ३. यो वाचा वि-वाचो मृध्रवाचः पुरू सहसाऽशिवा जघान (१०।२३।५) विभेद वलं नृनुदे वि-वाचः (३।३४।१०) वेङ्कटमाधव ने इसका अर्थ भिन्न प्रकार से किया है : वाचश्चाव्याकृता विनुनुदे-व्याचकार । ४. तेऽसुराः -हेऽलयो, हेऽलय, इति कुर्वन्तः पराबभूवुः । तस्माद् ब्राह्मणेन न म्लेच्छितवै नापभाषितवे, म्लेच्छो ह वा एष यदपशब्दः । द्रष्ट ० महाभाष्य पस्पशा०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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