Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम-गुणस्थान सिद्धांत : एक तुलनात्मक अध्ययन 111 देहत्याग करता है, वह उस परम दिव्य पुरुष को प्राप्त होता है । कालिदास ने रघुवंश में भी योग के द्वारा अन्त में शरीर त्यागने का निर्देश किया है। यह समग्र प्रक्रिया जैन विचारणा के चतुर्दश अयोगी केवली गुणस्थान से अति निकट है, उसमें भी इसी प्रकार मन वाणी और शरीर के समस्त व्यापारों को रोककर देह त्याग करने का निर्देश है। इस प्रकार हम देखते हैं कि यद्यपि गीता में आध्यात्मिक विकास क्रम का व्यवस्थित एक विशद विवेचन उपलब्ध नहीं है फिर भी जैन विचारणा के गुणस्थान प्रकरण में वर्णित आध्यात्मिक विकास क्रम की महत्वपूर्ण अवस्थाओं का चित्रण उसमें उपलब्ध है । जिन्हें यथाक्रम सँजोकर गीता के अनुसार नैतिक एवं आध्यात्मिक क्रम के स्वरूप को प्रस्तुत किया जा सकता है ।
जैन आचार दर्शन के १४ गुणस्थानों का गीता के दृष्टिकोण से विचार करने के लिए सर्वप्रथम हमें यह निश्चय करना होगा कि गीता में वर्णित तीनों गुणों का स्वरूप क्या है और वे जैन विचारणा के किन-किन शब्दों से मेल खाते हैं। गीता के अनुसार तमोगुण के लक्षण हैं अज्ञान, जाड्यता, निष्क्रियता, प्रमाद, आलस्य, निद्रा और मोह है । रागात्मकता, तृष्णा, लोभ, क्रियाशीलता, अशान्ति और ईर्ष्या ये रजोगुण के लक्षण माने गये हैं। सत्वगुण ज्ञान का प्रकाशक, निर्मात्यता और निर्विकार अवस्था का सूचक और सुखों का उत्पादक है। यदि इन तीनों गुणों की प्रकृतियों पर विचार करें तो हम पाते हैं कि जैन विचारणा में बन्धन के पाँच कारण १. अज्ञान (मिथात्व), २. प्रमाद, ३. अविरति ४. कषाय और ५. योग से इनकी तुलना की जा सकयी है । तमोगुण को मिथ्यात्व और प्रमाद के रजोगुण को अविरति, कषाय और योग के तथा सत्वगुण को विशुद्ध ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग, चरित्रोपयोग के तुल्य माना जा सकता है । इन आधारों पर गुणस्थान की धारणा का गीता के अनुसार निम्न स्वरूप होगा ।
१. मिथ्यात्व गुणस्थान में तमोगुण प्रधान होता है । रजोगुण तमोन्मुखी प्रवृत्तियों में संलग्न होता है। सत्वगुण इस अवस्था में पूर्णतया तमोगुण और रजोगुण के अधीन होता है। रजसमन्वित तमोगुण प्रधान अवस्था है।
२. सास्वादन गुणस्थान में भी तमोगुण प्रधान होता है; रजोगुण तमोन्मुखी होता है, फिर भी किंचित् रूप में सत्व गुण का प्रकाश रहता है। यह सत्वरजसमन्वित तमोगुण प्रधान अवस्था है।
३. मिश्र गुण स्थान-इस अवस्था में रजोगुण प्रधान होता है। सत्व और रज दोनों ही रजोगुण के अधीनस्थ होते हैं । यह सत्व तम समन्वित रजोगुणप्रधान अवस्था है ।
४. सम्यक्त्व गुण स्थान-इस अवस्था में व्यक्ति के विचार पक्ष में सत्वगुण का प्राधान्य होता है, लेकिन उसके आचार पक्ष पर तमोगुण और रजोगुण का प्राधान्य होता है। विचार की दृष्टि से तमस और रजसगुण सत्वगुण से शासित होते हैं। लेकिन आचार की दृष्टि सत्वगुण तमस और रजस गुणों से शासित होता । यह विचार की दृष्टि से रजः समन्वित सत्वगुण प्रधान और आचार की दृष्टि से रजः समन्वित तमोगुण प्रधान अवस्था है। १. प्रयाणकाले मनसाचलेन भक्त्या युक्तो योगबलेन चैव ।
भ्रवोमध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् ।। गीता ८.१० २. योगेनान्ते तनुत्यजाम्-कालिदास रघुवंश १३८ ।
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