Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम-गुणस्थान सिद्धांत : एक तुलनात्मक अध्ययन 109 कम होकर अन्त में विलीन हो जाते हैं और साधक विकास की एक अग्रिम कक्षा से प्रस्थित हो जाता है।
६. गीता के अनुसार विकास की अग्रिम कक्षा वह है, जहाँ श्रद्धा, ज्ञान और आचरण तीनों ही सात्विक होते हैं। यहाँ व्यक्ति की जीवन-दृष्टि और आचरण दोनों में पूर्ण तादात्म्य एवं सामंजस्य स्थापित हो जाता है, उसके मन, वचन और कर्म में एकरूपता होती है । गीता के अनुसार इस अवस्था में व्यक्ति सभी प्राणियों में उसी आप्मतत्व के दर्शन करता है'; आसक्ति रहित होकर मात्र अवश्य (नियत) कर्मों का आचरण करता है। उसका व्यक्तित्व आसक्ति एवं अहंकार से शून्य धैर्य और उत्साह से युक्त एवं निर्विकार होता है । उसके शमन शरीर से ज्ञान का प्रकाश प्रस्फुटित होता है अर्थात् उसका ज्ञान अनावरित होता है।
इस सत्वगुण प्रधान भूमिका में मृत्यु प्राप्त होने पर प्राणी उत्तम ज्ञान वाले विशुद्ध मिमल ऊर्ध्व लोकों में जन्म लेता है। यह विकास कक्षा जैन धर्म के १२ वें क्षीण मोह गुणस्थान के समकक्ष है। ज्ञानावरण का नष्ट होना इसी गुणस्थान का अन्तिम चरण है । यह अवस्था नैतिक पूर्णता की अवस्था है। लेकिन नैतिक पूर्णता साधना की इतिश्री नहीं है । डॉ० राधाकृष्णण कहते हैं सर्वोच्च आदर्श नैतिक स्तर से ऊपर उठकर आध्यात्मिक स्तर पर पहुँचता है । अच्छे (सात्विक) मनुष्य को सन्त त्रिगुणातीत) बनना चाहिए । सात्विक अच्छाई भी अपूर्ण है, क्योंकि इस अच्चाई के लिए भी इसके विरोधी के साथ संघर्ष की शर्त लगी हुई है, ज्योंही संघर्ष समाप्त हो जाता है और अच्छाई पूर्ण बन जाती हैं, त्योंही वह अच्छाई अच्छाई नहीं रहती। वह सब नैतिक बाधाओं से ऊपर उठ जाती है । सत्व की प्रकृति का विकास करने के द्वारा हम उससे ऊपर उठ जाते हैं ।
जिस प्रकार हम कांटे के द्वारा काटे को निकालते हैं (फिर उस निकालने वाले काटे का भी त्याग कर देते हैं) उसी प्रकार सांसारिक वस्तुओं का त्याग करने के द्वारा हमें त्याग को भी त्याग देना चाहिए । सत्व गुण के द्वारा रजस् और तमस् पर विजय पाते हैं और उसके बाद स्वयं सत्व से भी ऊपर उठ जाते हैं ।
७. विकास की अग्रिम अन्तिम कक्षा वह है, जहाँ साधक इस त्रिगुणात्मक जगत में रहते हुए भी इससे ऊपर उठ जाता है । गीता के अनुसार यह गुणातीत अवस्था ही साधना की चरम १. सर्वभूतेषु येनकं भावमव्ययमीक्षते ।
अविभक्तं विमलेषु तज्ज्ञानं विद्धि सात्विमम् ॥ गीता १८०२० २. नियतं संगरहितमरागद्वेषतः कृतम् ।
अफलप्रेप्सुना कर्म यत्तत्सात्विकमुच्यते ॥ गीता १८।२३ । ३. मुक्तसंगोऽनहंवादी धृत्युत्साहसमन्वितः।
सिद्धयसिध्ययोनिर्विकारः कर्ता सात्विक उच्यते ॥ गीता १८।२६ । ४. सवंद्वारेषु देहेऽस्मिन्प्रकाश उपजायते ।
ज्ञानं यदा तदा विद्याद्विवृद्धं सत्वमित्युत ॥ गीता १४।११ । ५. भगवद्गीता (राधाकृष्णन्) पृ० ११४ ।
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