Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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110 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
परिणति है, गीता के उपदेश का सार है' । गीता में विकास की इस अन्तिम कक्षा का चित्रण इस प्रकार मिलता है, जब देखने वाला (ज्ञानगुण सम्पन्न आत्मा) इन गुणों (कर्म प्रकृतियों) के अतिरिक्त किसी को कर्ता नहीं देखता और इनसे परे रहने वाले आत्म स्वरूप को जान लेता है तो वह मेरे (परमात्मा के) स्वरूप को प्राप्त हो जाता है। ऐसा शरीरधारी आत्मा शरीर के कारण भूत एवं उस शरीर से उत्पन्न होने वाले त्रिगुणात्मक मावों से ऊपर उठकर गुणातीत अवस्था को प्राप्त हो जन्म-जरा-मृत्यु के दुःखों से मुक्त होकर अमृत तत्व को प्राप्त हो जाता है। वह इन गुणों से विचलित नहीं होता; वह प्रकृति (कौ) के परिवर्तनों को देखता है, लेकिन उनमें उलझता नहीं । वह सुख-दुःख एवं लौह-कांचन को समान समझता है, सदैव आत्म स्वरूप में स्थिर रहता है । प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग में तथा निन्दा एवं स्तुति की अवस्था में वह एक सा रहता है। उसका मन सदैव स्थिर रहता है। मानापमान तथा शत्रु मित्र सभी उसके लिए समान है। ऐसा सर्व आरम्भों (पाप कर्मों) का त्यागी महापुरष गुणातीत कहा जाता है। तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर यह अवस्था जैविचारणा के १३ वें सयोगी केवली गुणस्थान एवं बौद्ध विचारणा की अहंत भूमि के समान है । यह पूर्ण वीतराग दशा है।
८. त्रिगुणात्मक देह से मुक्त होकर विशुद्ध परमात्म स्वरूप को प्राप्त कर लेना साधना की अन्तिम कक्षा है । इसे जैनविचारणा में अयोगी केवली गुणस्थान कहा गया है । गीता में जैन विचारणा के समतुल्य ही इस दशा का चित्रण उपलब्ध होता है। गीता के आठवें अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं-मैं तुझे उस परम पद अर्थात् प्राप्त करने योग्य स्थान को बताता हूँ, जिसे विद्वत् जन 'अक्षर' कहते हैं; वीतराग मुनि जिसकी प्राप्ति की इच्छा से ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं और जिसमें प्रवेश करते हैं । वीतराग मुनि द्वारा उसकी प्राप्ति के अन्तिम उपाय की ओर संकेत करते हुए कृष्ण कहते हैं कि शरीर के सब द्वारों का संयम करके (काया एवं वाणी के व्यापारों को रोक करके) मन को हृदय में रोक कर (मन के व्यापारों का निरोध कर) प्राण शक्ति को मूर्धा (शीर्ष) में स्थिर कर योग को एकाग्र कर ओ३म् इस अक्षर का उच्चारण करता हुआ मेरे अर्थात् विशुद्ध आत्मतत्व के स्वरूप का स्मरण करता हुआ अपने शरीर का त्याग कर इस संसार से प्रयाण करता है और उस परमगति को प्राप्त कर लेता है । जो व्यक्ति इस संसार से प्रस्थान के समय मन को भक्ति और योग बल से स्थिर करके (अर्थात् मन के व्यापारों को रोक करके) अपनी प्राण शक्ति को मोहों के मध्य सम्यक् प्रकार से स्थापित कर
१. वैगुण्यविषया वेदा निस्त्रगुणयो भवार्जुन ।
निन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ॥ गीता २।४५ । २. यदक्षरं वेदविदो वदन्ति विशन्ति यद्यतयो वीतरागाः । ___ यदिच्छन्तो प्रह्मचर्य चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण प्रवक्ष्ये ॥ गीता-८।११ । ३. सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च । मून्याधायात्मनः प्राणभास्थितो योगधारणाम् ।। ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् । यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ॥ गीता ८।१२, १३ ।
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