Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
उसके अनुसार वैयक्तिक मौतिक उपलब्धियों को लोक-कल्याण के लिए समर्पित किया जा सकता है और किया भी जाना चाहिये, क्योंकि वे हमें जगत् से ही मिली हैं, वे वस्तुतः संसार की हैं, हमारी नहीं; सांसारिक उपलब्धियाँ संसार के लिए हैं, अतः उनका लोकहित के लिए विसर्जन किया जाना चाहिये । लेकिन उसे यह स्वीकार नहीं है कि आध्यात्मिक विकास या वैयक्तिक नैतिकता को लोकहित नाम पर कुंठित किया जावे। ऐसा लोकहित, जो व्यक्ति के चरित्र के पतन अथवा आध्यात्मिक कुंठन से फलित होता हो, उसे स्वीकार नहीं है, लोकहित और आत्महित के संदर्भ में उसका स्वर्णिम सूत्र है - आत्महित करो और यथाशक्य लौकिक भी करो, लेकिन जहाँ आत्महित और लोकहित में द्वन्द्व हो और आत्महित के कुंठन पर ही लोकहित फलित होता हो तो वहाँ आत्मकल्याण ही श्रेष्ठ है'।
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आत्महित स्वार्थ ही नहीं है - यहाँ हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि जैन धर्मं का यह आत्महित स्वार्थवाद नहीं है । आत्म-काम वस्तुतः निष्काम होता है, क्योंकि उसकी कोई कामना नहीं होती है, अतः उसका स्वार्थं भी नहीं होता । आत्मार्थी कोई भौतिक उपलब्धि नहीं चाहता है । वह तो उनका विसर्जन करता है । स्वार्थी तो वह है, जो यह चाहता है कि सभी लोग उसकी भौतिक उपलब्धियों के लिए कार्य करें । स्वार्थ और आत्मकल्याण में मौलिक अन्तर यह है कि स्वार्थ की साधना में राग और द्वेष की वृत्तियाँ काम करती हैं जबकि आत्मकल्याण का प्रारम्भ ही राग-द्वेष की वृत्तियों की क्षीणता से होता है । राग-द्वेष से युक्त होकर आत्मकल्याण की सम्भावना ही नहीं रहती । यथार्थ आत्महित में राग-द्वेष का अभाव है | स्वार्थ और परार्थ में संघर्ष की सम्भावना भी तभी तक है, जब तक कि उनमें कहीं राग-द्वेष की वृत्ति निहित हो । रागादि भाव या स्वहित की वृत्ति किया जाने वाला परार्थ मी सच्चा लोकहित नहीं है, वह तो स्वार्थ ही है । जिस प्रकार शासन के द्वारा नियुक्त एवं प्रेरित समाज कल्याण अधिकारी वस्तुतः लोकहित का कर्ता नहीं है, वह तो वेतन के लिए लोकहित करता है । उसी प्रकार राग से प्रेरित होकर लोकहित करने वाला भी सच्चे अर्थों
लोकहित का कर्ता नहीं है, उसके लोकहित के प्रयत्न राग की अभिव्यक्ति, प्रतिष्ठा की रक्षा, यश-अर्जन की भावना या भावी लाभ की प्राप्ति के हेतु ही होते हैं । ऐसा परार्थं वस्तुतः स्त्रार्थं ही है । सच्चा आत्महित और सच्चा लोकहित, राग-द्वेष से शून्य अनासक्ति की भूमि पर प्रस्फुटित होता है लेकिन उस अवस्था में न तो 'अपना रहता है न पराया' क्योंकि जहाँ राग है वहीं 'मेरा' है और जहाँ मेरा है वहीं पराया है । राग की शून्यता होने पर अपने और पराये का विभेद ही समाप्त हो जाता है । जाने वाला आत्महित भी लोकहित होता है संघर्ष नहीं है, कोई द्वैत नहीं है । उस दशा अपना है, न कोई पराया है । स्वार्थं परार्थं की
ऐसी राग शून्यता की भूमि पर स्थित होकर किया और लोकहित आत्महित होता है । दोनों में कोई में तो सर्वत्र आत्म-दृष्टि होती है, जिसमें न कोई जैसी समस्या यहाँ रहती ही नहीं ।
जैन विचारणा के अनुसार स्वार्थ और परार्थ के मध्य सभी अवस्थाओं में संघर्ष रहे, यह आवश्यक नहीं । व्यक्ति जैसे-जैसे भौतिक जीवन से आध्यात्मिक जीवन की ओर ऊपर
१. उद्धृत आत्मसाधना संग्रह, पृ० ४४१ ।
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