Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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शून्य-अद्वैतवाद की तार्किक मीमांसा : जैनदर्शन के आलोक में
ग्राह्य-ग्राहक भावादि से शून्य संवित्तिमात्र का नाम सकलशून्यता नहीं है - अब यदि शून्य अद्वैतवादी यह मानें कि ग्राह्य ( जानने योग्य) और ग्राहक ( जानने वाले) भावादि से शून्य संवित्तिमात्र का नाम सकलशून्यता है, यहाँ प्रभाचन्द्र न्याय कुमुदचन्द्र में प्रश्न करते हैं कि उस प्रकार की शून्यता कैसे सिद्ध होती है ? अभ्युपगम मात्र से अथवा प्रतीति से' ? अभ्युपगम ( मानने) मात्र से अपने पक्ष की सिद्धि होने पर प्रतिपक्षरहित स्वपक्ष की सिद्धि कैसे होगी ? क्योंकि इस प्रकार तो सबको स्वेष्ट तत्त्व की सिद्धि हो जायेगी ।
अब यदि यह माना जाय कि प्रतीति होने से शून्यता की सिद्धि होती है तो उनका यह कथन भी ठीक नहीं है, क्योंकि जब ग्राह्य ग्राहक से शून्य संवित्तिमात्र की कभी भी प्रतीति नहीं होती है, तब उसमें शून्यता की प्रतीति कैसे सिद्ध होगी । विद्यानन्द ने तत्त्वार्थवार्तिकश्लोक मी यही कहा है । प्रतीति से वस्तु की व्यवस्था मानने पर बहिरंग और अन्तरंग में अनेकात्मक वस्तु को स्वीकार करना चाहिए। क्योंकि बाह्य और आध्यात्मिक अर्थों का ग्राह्य और ग्राहक आदि अनेक आकारात्मक रूप में ही प्रतीति से प्रतिभास होता है । यह प्रतीति मिथ्या नहीं है, क्योंकि इसका कोई बाधक नहीं है ।
संवृत्ति शब्द का अर्थ क्या है - माध्यमिकों ने यह माना है कि संवृत्ति पदार्थं की व्यवस्था करती है तो यहाँ प्रश्न होता है कि संवृत्ति क्या है ?
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यदि स्व अथवा पर की अपेक्षा पदार्थों के अस्तित्व है यह संवृत्ति का अर्थ माना जाय तो अनेकान्तमत में भी यह मान्य है । यदि संवृत्ति का अर्थ विचारों की अनुपपत्ति मानी जाय तो ऐसा मानना भी ठीक नहीं है, क्योंकि शून्य- अद्वैतमत में विचारों का अस्तित्व नहीं है ।
नीलादि का प्रतिभास अविद्याप्रभव क्यों है - शून्य - अद्वैतवादियों ने माना है कि नीलादि के आकार का प्रतिभास अवास्तविक है, क्योंकि अविद्याकल्पित है । प्रभाचन्द्र और वादिदेव सूरि इस कथन का निराकरण निम्नांकित विकल्पों को प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि नीलादि का प्रतिभास अविद्या से उत्पन्न क्यों है ?
(क) क्या बाध्यमान होने से ? अथवा ( ख ) उसके विषयभूत पदार्थों में अर्थक्रियाefore का अभाव होने से ? नीलादि का प्रतिभास बाधित हो जाता है ( बाध्यमान है) इसलिए वह अविद्याजन्य है, ऐसा नहीं माना जा सकता है, क्योंकि जहाँ यह बाधित होता है, वहीं जल
१. ननु सा तथाविद्या कुतः सिद्धा अभ्युपगममात्रात् प्रतीतेर्वा ? न्यायकुमुदचन्द्र, पृ०१३९ । २. ग्राह्यग्राहकशून्यत्वं ग्राह्यं तद्ग्राह्यकस्य चेत् । ग्राह्यग्राहकभावः स्यात् अन्यथा तदशून्यता ॥
३. संवृतिर्विचारानुपपरित्ययुक्तं तदभावात् ।
त० श्लो० वा० १|१|१, पृ० ८१, श्लोक १४९ ।
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अष्टशती, अष्टसहस्त्री के अन्तर्गत, पृ० ११६ ॥ ४. ( क ) तत्र कुतोऽयं नीलादिप्रतिमासोऽविद्याप्रभवः बाध्यमानत्वात् तदगोचरस्यार्थं क्रियाकारित्वाभावाद्वा ? प्रभाचन्द्र : न्या० कु० च०, ११५, पृ० १३३ ॥
(ख) वादिदेव सूरि : स्या० र०, ११६, पृ० १८३ ॥
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