Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 220
________________ आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम-गुणस्थान सिद्धान्तः एक तुलनात्मक अध्ययन 87 हो जाने के कारण सत्य और असत्य के मध्य झूलता रहता है। नैतिक दृष्टि से कहें तो यह एक ऐसी स्थिति है, जब कि व्यक्ति वासनात्मक जीवन और कर्तव्यशीलता के मध्य अथवा दो परस्पर विरोधी कर्तव्यों के मध्य, 'क्या श्रेय है' इसका निर्णय नहीं कर पाता। वस्तुतः व्यक्ति जब सत्य और असत्य के मध्य किसी एक का चुनाव न कर अनिर्णय की अवस्था में होता है, तब ही यह अनिश्चय की स्थिति उत्पन्न होती है। इस अनिर्णय की अवस्था में व्यक्ति को न तो सम्यक दृष्टि कहा जा सकता है और न मिथ्या दृष्टि। यह एक ऐसी भ्रान्ति की अवस्था है, जिसमें सत्य और असत्य ऐसे रूप में प्रस्तुत होते हैं कि व्यक्ति यह पहचान नहीं पाता है कि इनमें से सत्य कौन है ? फिर भी यह स्मरण रखना चाहिए कि इस वर्ग में रहा हुआ व्यक्ति असत्य को सत्य रूप में स्वीकार नहीं करता है। यह अस्वीकृत भ्रान्ति है, जिससे व्यक्ति को अपने भ्रान्त होने का ज्ञान रहता है, अतः वह पूर्णतः न तो भ्रान्त कहा जा सकता है न अभ्रान्त । जो साधक सन्मार्ग या मुक्ति पथ में आगे बढ़ते हैं, लेकिन जब उन्हें अपने लक्ष्य के प्रति संशय उत्पन्न हो जाता है, वे चौथी श्रेणी से गिरकर इस अवस्था में आ जाते हैं और अपने अनिश्चय की अल्प कालावधि में इस वर्ग में रहकर, सन्देह के नष्ट होने पर या तो पुनः चौथे सम्यक् दृष्टि गुणस्थान में चले जाते हैं या पथ भ्रष्ट होने से पहले मिथ्या दृष्टि गुणस्थान में चले जाते हैं। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह पाशविक एवं वासनात्मक जीवन के प्रतिनिधि इदम् (अबोधात्मा) और आदर्श एवं मूल्यात्मक जीवन के प्रतिनिधि नैतिक मन (आदर्शात्मा) के मध्य संघर्ष की वह अवस्था है, जिससे चेतन मन (बोधात्मा) अपना निर्णय देने में असमर्थता का अनुभव करता है और निर्णय को स्वल्प समय के लिए स्थगित रखता है। यदि चेतनमन (Ego) वासनात्मकता का पक्ष लेता है तो व्यक्ति भोगमय जीवन की ओर मुड़ता है, अर्थात् मिथ्यादृष्टि हो जाता है और यदि चेतनमन आदर्शों या नैतिक मूल्यों के पक्ष में अपना निर्णय देता है, तो व्यक्ति आदर्शों की ओर मुड़ता है, अर्थात् सम्यग्दृष्टि हो जाता है। मिश्र गुणस्थान जीवन के संघर्ष की अवस्था का द्योतक है, जिसमें मानव में निहित पाशविक वृत्तियाँ और आध्यात्मिक वृत्तियों के मध्य संघर्ष चलता है। लेकिन जैन दर्शन के अनुसार यह वैचारिक या मानसिक संघर्ष की अवस्था अन्तर्मुहूर्त (४८ मिनट) से अधिक नहीं चलती है। यदि आध्यात्मिक एवं नैतिक पक्ष विजयी होता है तो व्यक्ति आध्यात्मिक विकास की दिशा में आगे बढ़कर यथार्थ दृष्टिकोण को प्राप्त कर लेता है और यदि पाशविक वृत्तियां विजयी होती हैं तो व्यक्ति वासनाओं के प्रबलतम आवेगों के फलस्वरूप यथार्थ दृष्टिकोण से वञ्चित हो जाता है, इस प्रकार वह पुनः पतित हो प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में चला जाता है। इस प्रकार नैतिक प्रगति के दृष्टि से यह तीसरा गुणस्थान भी अविकास की अवस्था ही है, क्योंकि जब तक व्यक्ति में यथार्थ बोध या शुभाशुभ के सम्बन्ध में सम्यक् विवेक जागृत नहीं हो जाता है, तब तक वह नैतिक शुभाचरण नहीं कर पाता है । इस तीसरे गुणस्थान में शुभ और अशुम के सन्दर्भ में अनिश्चय की अवस्था अथवा सन्देहशीलता की स्थिति होती है, अतः इस अवस्था में नैतिक शुभाचरण की सम्भावना नहीं मानी जा सकती है। इस तृतीय मिश्र गुणस्थान में अथवा अनिश्चय की अवस्था में कभी भी मृत्यु नहीं होती है, क्योंकि आचार्य नेमिचन्द्र' का कथन है कि मृत्यु उसी स्थिति में सम्भव है, १. सम्मत्तमिच्छपरिणामेसु जहिं आउगं पुरा बद्धं । तहिं मरणं मरणंत समुग्धादो वि य ण मिस्सम्मि || -गोम्मटसार जीवकाण्ड २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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