Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
वह उस कार्य में प्रवृत्त नहीं होता। आचार्य हरिभद्र ने सम्यक्दृष्टि अवस्था की तुलना महायान के बोधिसत्व के पद से की है' । बोधिसत्व का साधारण अर्थ है ज्ञानप्राप्ति का इच्छुक व्यक्तिरे। इस अर्थ में बोधिसत्व सम्यकदृष्टि से तुलनीय है, लेकिन यदि बोधिसत्व के लोककल्याण के आदर्श को सामने रखकर तुलना की जावे तो बोधिसत्व पद उस सम्यक् दृष्टि आत्मा से तुलनीय ठहरता है, जो तीर्थंकर होने वाला है ।
(५) देश विरति सम्यक दृष्टि गुणस्थान -- यह आध्यात्मिक विकास की पांचवी श्रेणी है, लेकिन नैतिक आचरण की दृष्टि से यह प्रथम स्तर ही है, जहाँ से साधक सदाचरण के मार्ग पर चलना प्रारम्भ कर देता ! चतुर्थ अविरत सम्यक्दृष्टि गुणस्थान में साधक कर्तव्याकर्तव्य का यथार्थ विवेक रखते हुए भी कर्तव्य पथ पर आरूढ़ नहीं हो पाता है। जबकि इस पाँच देशविरति सम्यकदृष्टि गुणस्थान में साधक कर्तव्य-पथ पर यथाशक्ति चलने का प्रारम्भिक प्रयास करता है। देशविरति का अर्थ है वासनात्मक जीवन से आंशिक रूप में निवृत्ति । हिंसा, झूठ, परस्त्रीगमन आदि अशुभाचरणों तथा वासनाओं या कषायों से आंशिक रूप में विरत होना ही देशविरति कहा जाता है। इस गुणस्थान में साधक यद्यपि गृहस्थाश्रम में रहता है, फिर भी वासनाओं पर थोड़ा बहत यथाशक्ति नियंत्रण करने का प्रयास करता रहता है, जिसे वह उचित समझता है, उस पर आचरण करने की कोशिश भी करता है । इस गुणस्थान में साधक श्रावक के १२ अणुव्रतों का आचरण करता है। जो गृहस्थ साधक आंशिक रूप से अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य आदि का आचरण करते हैं, वे इसी वर्ग में आते हैं ।
चतुर्थ गुणस्थानवी आत्माओं में जब वासनाओं एवं कषायों के आवेगों का अस्थायी प्रकटन होता है तो वे चाहते हुए भी उन पर नियत्रण नहीं कर पाते है । यद्यपि उनको वासनाओं में स्थायित्त्व नहीं होता, एक समयावधि के पश्चात् वे स्वत: उपशांत हो जाती हैं। जैसे तृणपुज में जब अग्नि तीव्रता से प्रज्ज्वलित होती है तो उस पर काबू पाना कठिन होता है, यद्यपि एक समयावधि के पश्चात् वह स्वयं ही उपशांत हो जाती है। लेकिन जब तक व्यक्ति में कषायों के ऊपर नियंत्रण की क्षमता नहीं आती, तब तक वह इस पाँचवें गुणस्थान को प्राप्त नहीं कर सकता है । इस गुणस्थान की प्राप्ति के लिए अप्रत्याख्यानी ( अनियंत्रणीय ) कषायों का उपशान्त होना आवश्यक है । जिस व्यक्ति में वासनाओं एवं कषायों पर नियंत्रण करने की क्षमा नहीं होती, वह नैतिक आचरण नहीं कर सकता है, यही कारण है कि नैतिक आचरण की इस भूमिका में वासनाओं एवं कषाओं पर आंशिक नियंत्रण क्षमता का होना आवश्यक
१. अयमस्या भवस्थायां बोधिसत्वोऽमिधीयते ।
अन्यस्तल्लक्षणं यस्मात् सर्वमस्योपपद्यते ।।—योग बिन्दु २७० २. बोधो ज्ञाने सत्व अभिप्रायोऽस्येतिबोधिसत्वः (बोधि० पंजिका ४२१ उद्धृत
बौद्धदर्शन पृ० ११६ । ३. यत्सम्यग्दर्शन बोधिस्तत्प्रधानो महोदयः ।
सत्वोऽस्तु बोधिसत्वस्तध्वन्तैषेऽन्वर्थतोऽपि हि ॥ वरबोधि समेतो वा तीर्थकृधौ भविष्यति । तथा भव्यत्वताऽसौ वा बोधिसत्वः सतां मतः ।।---योग बिन्दु २७३-२७४
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