Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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आध्यात्मिक साधना का विकासक्रम-गुणस्थान सिद्धान्तः एक तुलनात्मक अध्ययन 99
का निरोध कर लेता है तथा समुच्छिन्न क्रियाप्रतिपादित शुक्ल ध्यान द्वारा निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त करके शरीर का त्याग कर निरुपाधि सिद्धि या मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। गुणस्थान का यह अन्तिम चरण अत्यन्त अल्प होता है । जितना समय पांच ह्रस्व स्वरों अ, इ, उ, ऋ, लु को मध्यम स्वर से उच्चारित करते में लगता है, उतने ही समय तक इसमें आत्मा की अवस्थिति होती है। यह गुणस्थान अयोगी केवलीगुणस्थान कहा जाता है, क्योंकि इस अवस्था में केवली के समग्र कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापार जिन्हें योग कहा जाता है, पूर्णतः निरुद्ध हो जाते हैं। यह योग संन्यास है, यही सर्वांगीण पूर्णता है, चरम आदर्श की उपलब्धि है। बाद की जो अवस्था है, उसे जैन विचारकों ने मोक्ष, निर्वाण, शिवपद एवं निर्गुण ब्रह्म स्थिति कहा है'। बौद्ध साधना में आध्यात्मिक विकास की भूमियाँ
चाहे जैन और बौद्ध साधना पद्धतियों में निर्वाण या मुक्ति के स्वरूप को लेकर मत वैभिन्य रहा हो फिर भी दोनों का आदर्श निर्वाण की उपलब्धि ही रहा है और साधक जितना अधिक निर्वाण की भूमिका के समीप होता है, उतना ही अधिक आध्यात्मिक विकास की उच्चता को प्राप्त करता है। आध्यात्मिक विकास की इन १४ भूमियों को जैन धर्म के सभी आम्यान्तर सम्प्रदाय स्वीकृत करते हैं, लेकिन बौद्ध परम्परा में आध्यात्मिक विकास की ममियों की मान्यता को लेकर मतवैभिन्य है। श्रावकयान अथवा हीनयान सम्प्रदाय, जिसका लक्ष्य वैयक्तिक निर्वाण अथवा अहंत पद की प्राप्ति है, आध्यात्मिक विकास की चार भूमियाँ मानता है। जबकि महायान सम्प्रदाय, जिसका चरम लक्ष्य बुद्धत्व की प्राप्ति के द्वारा लोकमंगल की साधना है, आध्यात्मिक विकास की दस भूमियाँ मानता है। हम क्रमशः दोनों सम्प्रदायों के दृष्टिकोणों को प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।
(अ) बौद्ध धर्म में भी जैन धर्म के समान जगत् के प्राणियों को दो श्रेणियाँ मानी गयी हैं ( १) पृथक्जन ( मिथ्या दृष्टि ) तथा (२) आर्य (सम्यक् दृष्टि) मिथ्या दृष्टि अथवा पृथक्जन अवस्था का काल प्राणी के अविकास का काल है। विकास का काल तो तभी प्रारंभ होता, है जब साधक सम्यक् दृष्टि को ग्रहण कर निर्वाण मार्ग पर आरूढ़ हो जाता है । फिर सभी पृथक्जन : मिथ्या दृष्टि ) समान नहीं होते हैं, उनमें तारतम्य है। कुछ मिथ्या दृष्टि सदाचारी होते हैं तथा सम्यक्दृष्टि के अतिनिकट होते हैं । अतः पृथक्जन भूमि को दो भागों में बांटा गया है (१) प्रथम अन्ध पृथक् जन भूमि-यह अज्ञान एवं मिथ्या दृष्टित्व की तीव्रता की अवस्था है और (२) दूसरी कल्याण पृथक् जनभूमि - मझिझम निकाय में इस भूमिका का निर्देश मिलता है। इसे धर्मानुसारी या श्रद्धानुसारी भूमिका कहा गया है । इस भूमिका में साधक निर्वाण मार्ग जी ओर अभिमुख तो होता है, लेकिन उसे प्राप्त नहीं करता है । इसकी तुलना जैन विचारणा में साधक की मार्गानुसारी अवस्था से की जा सकती है । हीनयान सम्प्रदाय के अनुसार सम्यक् दृष्टि सम्पन्न निर्वाण मागं पर आरूढ़ साधक को अपने लक्ष्य १. योग संन्यासतस्त्यागी योगानप्यखिलाँस्त्यजेत् ।
इत्येवं निर्गुणं ब्रह्म परोक्तमुपपद्यते-ज्ञानासार, त्यागाष्टक ७ २. पं० सुखलाल जी ने भी इसे मार्गानुसारी अवस्था से तुलनीय माना है ।
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