Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
लिए कुछ भी परिशेष नहीं रहा होता है । लेकिन उसे सिद्ध भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसकी आध्यात्मिक पूर्णता में अभी कुछ कमी बनी हुई है । अष्ट कर्मों में उसके उपरोक्त ४ घाती कर्म तो क्षय हो ही जाते हैं, लेकिन शेष चार अघाती कर्म बाकी रहते हैं। आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय इन चार कर्मों के बने रहने के कारण आत्मा देह से अपने सम्बन्ध का परित्याग नहीं कर पाता और यही कारण है कि बन्धन के मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद और योग इन पाँच कारणों में योग के अतिरिक्त शेष चार कारण तो समाप्त हो जाते हैं, लेकिन आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध बना रहने के कारण कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापार, जिन्हें जैन शब्दावली में योग कहा जाता है, होते रहते हैं । इस प्रकार इस अवस्था में मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाएँ होती रहती हैं और उनके कारण बन्धन भी होता रहता है, लेकिन कषायों के अभाव में उसमें टिकाव नहीं होता, पहले क्षण में बन्ध होता है दूसरे क्षण में उसका विपाक ( प्रदेशोदय के रूप में ) होता है और तीसरे क्षण में वे कर्म परमाणु निर्जरित हो जाते हैं। इस अवस्था में योगों के कारण होने वाले बन्धन और विपाक की प्रक्रिया को कर्म - सिद्धान्त की मात्र औपचारिकता ही समझना चाहिये। अस्तित्व के कारण ही इस अवस्था को सयोगी केवलीगुणस्थान कहा जाता है यह अवस्था साधक और सिद्ध के बीच की अवस्था है । इस अवस्था में स्थित व्यक्ति को जैन विचारणा में अहंत, सर्वज्ञ एवं केवली कहा जाता है । वस्तुत: यह वेदान्त की जीवन्मुक्ति या सदेह मुक्ति की अवस्था है ।
इन योगों के
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(१४) अयोगी केवली गुणस्थान - सयोगी केवली गुणस्थान में यद्यपि आत्मा आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर लेती है, लेकिन फिर भी आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध बना रहने से शारीरिक उपाधियाँ तो लगी रहती हैं। प्रश्न होता है कि वह इन शारीरिक उपाधियों को समाप्त करने का प्रयास क्यों नहीं करता ? इसका प्रथम उत्तर यह है १२खें गुणस्थान में आकर साधक की समग्र इच्छाएँ समाप्त हो जाती हैं, अतः उसमें न जीवन की कामना होती है न मृत्यु की चाह, अतः वह शारीरिक उपाधियों को निर्मूल करने का भी कोई प्रयास नहीं करता । दूसरे साधना के द्वारा उन्हीं कर्मों का क्षय हो सकता है, जो उदय में नहीं आये हैं अर्थात् जिनका फलविपाक प्रारम्भ नहीं हुआ है । जिन कर्मों का फलभोग प्रारम्भ हो जाता है, उनको फलभोग की मध्यावस्था में परिवर्तित या क्षीण नहीं किया जा सकता है । वेदान्तदर्शन में भी इस बात को स्वीकार किया है । आदरणीय तिलकजी लिखते हैं जिन कर्मफलों का भोग आरम्भ होने से यह शरीर एवं जन्म मिला है उनके, भोगे बिना छुटकारा नहीं है ( प्रारब्धकर्मणां भोगादेव क्षय: ) क्योंकि नाम शरीर ) गोत्र एवं आयुष्य कर्म का विपाक साधक के जन्म से ही प्रारम्भ हो जाता है। साथ ही शरीर की उपस्थिति तक शारीरिक अनुभूतियों ( वेदनीय ) का भी होना आवश्यक होता है, अतः पुरुषार्थं एवं साधना के द्वारा इनमें कोई परिवर्तन कर पाना सम्भव नहीं होता है । यही कारण है कि जीवन्मुक्त शारीरिक उपाधियों का निष्काम भाव से उनकी उपस्थिति तक भोग करता रहता है । लेकिन जब वह इन शारीरिक उपाधियों की समाप्ति को निकट देखता है तो शेष कर्मावरणों को समाप्त करने के लिए यदि आवश्यक हो तो प्रथम केवलिसमुद्घात करता है तत्पश्चात् सूक्ष्म क्रिया प्रतिपादित शुक्ल ध्यान के द्वारा मानसिक, वाचिक एवं कायिक व्यापारों
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