Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 187
________________ 54 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3 साधु-जीवन में चलता रहता है । इस प्रकार साधु-जीवन नितांत संयमित होता है । संत-जीवन आत्मसाधना का जीवन होता है। संवर और निर्जरा की साधना साधु-जीवन में निरन्तर चलती रहती है। साधु सदा अपने आपको आधि, व्याधी और उपाधि से मुक्त रखता है। चरम समाधि ही उसके जीवन का परम लक्ष्य होता है। साधु न केवल आत्मसाधना ही करता हे, प्रत्युत्त अन्य जनों को सत्-पथ पर, मोक्ष-मार्ग पर ले जाने का प्रयास भी करता है । इस हेतु अनेक जैन संतों ने अपनी विचारधारा को वाणी का स्वरूप देकर जन-मानस तक पहुँचाने का सुप्रयास किया। इन संतों के विचार हमारे साहित्य और दर्शन की अमूल्य विभूतियाँ हैं । श्वेताम्बर तथा दिगम्बर-परम्पराओं में अनेक आचार्य और संत हुए, जिन्होंने अमर साहित्य की सृष्टि की । प्राकृत भाषा में जैन काव्य की धारा प्रस्फुटित होकर संस्कृत भाषा में समाहित हुई। तत्पश्चात् अपभ्रंश भाषाओं में भी जैन-संत-काव्य-धारा का प्रवाह चला। जब हिन्दी भाषा का प्रादुर्भाव हुआ तो उसी काव्य-धारा ने हिन्दी भाषा को भी अमिसिंचित किया। श्वेताम्बर-परम्परा में आगे चलकर दो और सम्प्रदायों का जन्म हुआ। जो स्थानकवासी और तेरापंथ-सम्प्रदाय के नाम से जाने जाते हैं। सोलहवीं शताब्दी में लोकासाह ने स्थानकवासी सम्प्रदाय की नींव डाली। इस सम्प्रदाय में भी अनेक संत हुए। तेरापंथ सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव वि० सं० १८१७ में हुआ। आचार्य भिक्षु इस सम्प्रदाय के आदि आचार्य हुए। हालांकि इस सम्प्रदाय का इतिहास नितांत अल्पकालीन है, फिर भी इस सम्प्रदाय में अनेक सन्त कवि हुए। इन कवियों की कृतियाँ हिन्दीसाहित्य की अमूल्य निधि है । इन सन्तों की वाणी से जो विचार-धारा प्रस्फुटित हुई, हम उस धारा की उपेक्षा नहीं कर सकते। अल्पकाल में ही इस खेवे के सन्त-कवियों ने सुललित काव्य की सृष्टि की, जो हिन्दीसाहित्य का महत्वपूर्ण अध्याय हो सकता है। तेरापंथ-परम्प । में सन्तगण जन साधारण के बीच अपने पावन विचारों के प्रसार हेतु मजन, ढालें और प्रगीतों का सृजन करते हैं और इन रचनाओं के माध्यम से जनसाधारण को अध्यात्म और धर्म का उपदेश देते हैं। जैन दर्शन और साहित्य के ग्रन्थ प्राकृत और संस्कृत में हैं। इन सन्तों ने प्राचीन ग्रन्यों के सूत्रों को आत्मसात् कर उन्हें राजस्थानी जनपदीय भाषा में रूपान्तरित करने का स्तुत्य प्रयास किया। __ तेरापंथ का इतिहास लगभग २०० वर्षों का है। आचार्य भिक्षु ने जब रघुनाथ जी के टोले से बहिर्गमन कर तेरापंथ की नींव डाली तो इन्हें प्रबल विरोध का सामना करना पड़ा। धीरे-धीरे विरोध का झंझावात शान्त हुआ, लोगों की जिज्ञासा जगी। आचार्य भिक्षु (सन्त भीखण जी) के प्रति लोगों में भक्ति के बीज अंकुरित होने लगे । आचार्य जी की वाणी में लोगों को सत्य के दर्शन होने लगे । लोगों के अनुराग को देख आचार्य भी काव्य-सृजन में लग गये। आचार्य भिक्षु एक तपे-तपाये सन्त थे। कठोर साधना और शुद्ध आचार-अनुपालन इनके जीवन का परम लक्ष्य था। शुभ-योगों का उदय इनके अन्तर जगत् में होता रहता था। काव्यरूप में इन्होंने अपने विचारों की जनसाधारण के बीच अभिव्यंजना की तथा अपने जीवनकाल में संघर्षपूर्ण परिस्थितियों के बीच रहकर भी ३८००० पदों की रचना की। इनके समय साधु साध्वियों की संख्या अल्प रहने पर भी कई सन्त-कवियों का प्रादुर्भाव हुआ । जैसे—मुनि वेणीराम जी, मुनि हेमराज जी आदि। इनके बाद भारमल जी और आचार्य रामचन्द जी का प्रादुर्भाव हुआ। इनके काल में विशिष्ट काव्य-सृजन नहीं हुआ। जयाचार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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