Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur

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Page 178
________________ विष्णुधर्मोत्तरपुराण का प्राकृतलक्षण- एक तुलनात्मक विवेचन पूर्व में रहकर परवर्ती वर्ण के साथ संयुक्त होता है, तो वहाँ प्राकृत-व्याकरण के नियमानुसार संयुक्त रूप में (विद्यमान) पूर्वस्थ उक्तवर्णों का लोप हो जाता है । उसी नियम के अपवाद के रूप में यह पंक्ति कहती है कि पूर्वस्थ मी 'ग' यदि 'य' से संयुक्त हो, तो वहाँ सदा 'य' का ही लोप हो, न कि पूर्वस्थ 'ग' का । इसका सम्बन्ध वररुचि के " अधोमनयाम्" (३-२) सूत्र से है, जो “उपरि लोपः " (३-१) इस सूत्र के द्वारा मृग्यः, योग्य: आदि प्रयोगों में 'य' के साथ संयुक्त पूर्वस्थ 'ग' का लोप नहीं होने देता, प्रत्यय 'य' का लोप कर मग्गो, जोग्गो आदि प्रयोगों को निष्पन्न करता है । इस सिद्धान्त का समर्थक आ० हेमचन्द्र का सूत्र भी आचार्य वररुचि के सूत्र के समान ही है । 45 (ख) षणौ युक्तौ पृथक्कृत्वा सणौ कार्यों विचक्षणैः ॥ ४ ॥ इसका अभिप्राय यह है कि 'ष' एवं 'ण' का प्रयोग संस्कृत के जिन शब्दों में संयुक्त रूप में होता है, प्राकृत में उसे वियुक्त (संयोग विहीन) कर प्रयोग करना चाहिए । उक्त कथन आ० वररुचि के “कृष्णे वा" (३-५९) इस सूत्र के आशय पर आधारित है । सूत्र का अभिप्राय यह है कि कृष्ण शब्द में विकल्प से विकर्ष (संयुक्त वर्णों का पृथक्करण) हो । कृष्ण शब्द में विकर्षं होने पर 'ष' और 'ण' के बीच में स्वर ( अ ) का आगम होकर ' कसण' प्रयोग बनता है । आचार्य हेमचन्द्र भी अनुसार जहाँ केवल कसण एवं इस सूत्र से अत् और इत् का ये तीन रूप बनाते हैं । इस विकर्षं वाली प्रक्रिया से सहमत हैं, किन्तु आ० वररुचि के 'कण्ह' सिद्ध होते हैं वहाँ हेमचन्द्र " कृष्णे वर्णे वा” (८-२-११०) विधान कर वर्णवाची कृष्ण शब्द कसण, कसिण एवं कण्ह वर्णवाची कृष्ण शब्द के अतिरिक्त 'ष' एवं 'ण' के संयुक्त स्थल में वररुचि एवं हेमचन्द्र दोनों ही अचार्य 'ह' आदेश करते हैं । अतः कण्ह, विण्ह आदि प्रयोग निष्पन्न होते हैं । मार्कण्डेय मुनि इस सन्दर्भ में मौन रह गये हैं । ५ (क) दमो युक्तौ पृथक्कृत्वा दुमौ कार्यों तथैव च । इसका अभिप्राय यह है कि जहाँ संस्कृत शब्दों में 'द' और 'म' संयुक्त हों वहाँ प्राकृत में दोनों को अलग-अलग करके 'दु' एवं 'म' के रूप में प्रयोग करना चाहिये । इसका आधार आ० वररुचि का " उत्पदमतन्वी समेषु ” ( ३-६४ ) यह सूत्र है । इसका अर्थ यह है कि पदम और तन्वी शब्दों में तथा इनके समान अन्य शब्दों में भी विकर्ष कर विकृष्ट वर्ण को 'उ' स्वर के साथ प्रयोग करना चाहिये । इसी नियम के आधार पर 'पदम' से 'पदुम' तथा 'तन्वी' से 'तणुई' प्रयोग बनते हैं । Jain Education International आ० हेमचन्द्र ने ऐसे स्थल के लिए 'पदमछदममूर्खद्वारे वा' ( ८-२ - ११२ ) इस सूत्र का निर्माण किया है । इसका अर्थ यह है पद्म, छद्म, मूर्ख और द्वार इन शब्दों के संयुक्त वर्णों में अन्तिम व्यंजन वर्ण के पहले विकल्प से 'उ' का आगम हो । अतः पदमम् तथा छदमम् For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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