Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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विष्णुधर्मोत्तरपुराण का प्राकृतलक्षण एक तुलनात्मक विवेचन
डॉ० कृष्णकुमार झा प्राकृत के वैयाकरणों में वररुचि अग्रगण्य है । आचार्य वररुचि का समय ४थी शताब्दी है, जैसा पिशेल आदि विद्वानों ने सिद्ध किया है। सर्वप्रथम इन्होंने ही प्राकृतप्रकाश लिखकर प्राकृत व्याकरण की परम्परा चलायी । अतः यह स्वाभाविक है कि प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्राकृत के सभी अर्वाचीन वैयाकरण इनके ऋणी हों। इनके बाद होने वाले प्राकृत के वैयाकरणों में हेमचन्द्र सर्वप्रसिद्ध हैं । उनका जीवनकाल १०८८ ई० से ११७२ ई० तक माना जाता है । उन्होने एक विस्तृत व्याकरण-ग्रन्थ की रचना की है।
व्याकरण-ग्रन्थों के अतिरिक्त विष्णुधर्मोत्तरपुराण में भी प्राकृत का लक्षण दिया गया है, इसके समय के सम्बन्ध में डा० प्रियबाला शाह कहती हैं कि ५०० ई० में होने वाले पराशर ने विष्णुधर्मोत्तरपुराण (खं० २ अ० ७६ श्लोक २) के
अनाथं ब्राह्मणप्रेतं ये वहन्ति द्विजातयः।
पदे पदे क्रतुफलं चानुपूर्वाल्लभन्ति ते ।। श्लोक को अपनी स्मृति में उद्धृत किया है। अतः विष्णुधर्मोत्तरपुराण का काल पराशर (५००) से पूर्व वररुचि से भी पूर्व है । किन्तु डा० पी० वी० काणे ने उक्त श्लोक को मूलरूप में सप्रमाण पराशर-स्मृति का ही माना है। अतः विष्णुधर्मोत्तरपुराण पराशर-स्मृति (५०० ई०) के बाद की रचना है।
____ अलवेरुनी (१०३० ई०) ने विष्णुधर्मोत्तरपुराण के प्रसंग में उक्त श्लोक की चर्चा की है, जिससे यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि विष्णुधर्मोत्तरपुराण का निर्माणकाल ५०० ई० एवं १०३० ई० के बीच है। इस तरह यह प्राकृत के वैयाकरण वररुचि के बाद एवं हेमचन्द्र (१०८८ से ११७२ ई०) से पूर्व की रचना सिद्ध होती है।
इस विष्णुधर्मोत्तरपुराण में मार्कण्डेय एवं वज्र के संवाद के क्रम में संक्षेप से प्राकृत व्याकरण के नियमों का प्रदर्शन किया गया है, जिनका उल्लेख कर आचार्य वररुचि एवं आचार्य हेमचन्द्र के व्याकरण के साथ तुलनात्मक विवेचन किया जा रहा है ।
(विष्णुधर्मोत्तरपुराण, खं० ३ अध्याय ७)
मार्कण्डेयःअथातः सम्प्रवक्ष्यामि तव प्राकृत लक्षणम् ।
ऋऋ लल न सन्त्यत्र नोष्मा' न(णौ)च(श) षावुभौ ॥१।। १. V नष्मा। २. A. C. V. मषावुभौ 8 सषावुभौ ।
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