Book Title: Vaishali Institute Research Bulletin 3
Author(s): R P Poddar
Publisher: Research Institute of Prakrit Jainology & Ahimsa Mujjaffarpur
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28 VAISHALI INSTITUTE RESEARCH BULLETIN No. 3
सर्वहित और लोकहित के सन्दर्भ में जैन-दृष्टि
यद्यपि जैन दर्शन में आत्मकल्याण और वैयक्तिक मुक्ति को जीवन का परम लक्ष्य माना गया है, किन्तु इस आधार पर भी उसे असामाजिक नहीं कहा जा सकता है । जिस लोक करुणा और लोकहित की अनुपम भावना से अर्हत प्रवचन का प्रस्फुटन होता है, उसे नहीं झुठलाया जा सकता है।
जैनाचार्य समन्तभद्र जिन-स्तुति करते हुए कहते हैं- "हे भगवान् आपकी यह संघ (समाज) व्यवस्था सभी प्राणियों के सर्व दुःखों का अन्त करने वाली और सबका कल्याण (सर्वोदय) करने वाली है।" इससे बढ़कर लोक-आदर्श और लोक-मंगल की कामना क्या हो सकती है ? प्रश्नव्याकरणसूत्र में कहा गया है— "भगवान् का यह सुकथित प्रवचन संसार के सभी प्राणियों के रक्षण एवं करुणा के लिए है। जैन साधना लोक-मंगल की धारणा को लेकर ही आगे बढ़ती है । उसी सूत्र में आगे यह भी बताया गया है कि जैन-साधना के पाँचों महाव्रत सर्व प्रकार से लोकहित के लिए ही हैं। अहिंसा की विवेचना करते हुए कहा गया है कि साधना के प्रथम स्थान पर स्थित यह अहिंसा सभी प्राणियों का कल्याण करने वाली है। यह भगवती अहिंसा प्राणियों के लिए निर्वाध रूप से हितकारिणी है। यह प्यासों को पानी के समान, भूखों को भोजन के समान, समुद्र में जहाज के समान, रोगियों के लिए औषधि के समान और अटवी में सहायक के समान है" । तीर्थकर नमस्कार सूत्र (नमोत्थुणं) में तीर्थंकर के लिए लोकनाथ, लोकहितकर, लोकप्रदीप, अमय के दाता आदि जिन विशेषणों का उपयोग हुआ है, वे भी जैन दृष्टि की लोक-मंगलकारी भावना को स्पष्ट करते हैं। तीर्थंकरों का प्रवचन एवं धर्म-प्रवर्तन प्राणियों के अनुग्रह के लिए होता है, न कि पूजा या सत्कार के लिए। यदि ऐसा माना जाय कि जैन-साधना केवल आत्महित, आत्म-कल्याण की बात कहती है तो फिर तीर्थंकर के द्वारा तीर्थ-प्रवर्तन या संघ-संचालन का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता, क्योंकि कैवल्य की उपलब्धि के बाद उन्हें अपने कल्याण के लिए कुछ करना शेष ही नहीं रहता है । अतः मानना पड़ेगा कि जैन-साधना का आदर्श मात्र आत्मकल्याण ही नहीं, वरन् लोककल्याण भी है।
___ जैन दार्शनिकों ने आत्महित की अपेक्षा लोकहित की श्रेष्ठता को सदैव ही महत्व दिया है । जैन विचारणा के अनुसार साधना की सर्वोच्च ऊँचाई पर स्थित सभी जीवनमुक्त आध्यात्मिक पूर्णता की दृष्टि से, यद्यपि समान ही होते हैं, फिर भी जैन विचारकों ने उनकी आत्महितकारिणी और लोकहितकारिणी दृष्टि के तारतम्य को लक्ष्य में रखकर उनमें उच्चावच्च अवस्था को स्वीकार किया है। एक सामान्य केवली (जीवनमुक्त) तीर्थंकर में आध्यात्मिक
१. सर्वोदयदर्शन-आमुख पृ० ६ पर उद्धृत । २. प्रश्न व्याकरण सूत्र २१।२२ । ३. प्रश्न व्याकरण १११।२१ । ४. वही, १११।३। ५. वही, १।२।२२ । ६. सूत्रकृतांग (टी०) ११६।४ ।
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